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महें चरक | 21 अबई | अवररमणिन वरंजिय भए जनस्त्कालिन सासू सासर सर विहिसानलदनि वड भरावासाठी तायचं तरविरहम् लें. होरे पसरियस्य कुबरिदिंज्ञायय न चुंग थो। घृणेधणेजा धूणे करकंडावणे जिऐचिमहाफणि देवावैखयरवे मित्रेश्यरति । चायविगमव। श्राममहिवपुरि सरनिविन महराला पाय लावें मुख वोवादिय मरुताचिय पियपरिणाम निद्य काम य हिमशिजहि लश्पडिवाहि न्द्रापविलेवा केक परिहरणु गुरुरजहि लायसं जहि वजन वाय हि नहिंगाहिं करुलावहि परिकपढा वहि उ सुखधून जश्न हालोयमितोननजीव मि तायदों पिनं तमुदयकि अणुश्राणिषु पाठ कोणिषु नियमिला। विरहविसमा आलिंगेपिए चारुचिण्ड कहमि कहा गठे | मटारद्वयसिरि णिर्माणिकि इमहोसव हो । चमपलवे हर्न अडच वहिदेत होते २१५
बदतचक्रव श्रीमती पुत्री प्रति तवावर्मनं ।।
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सिरेचुं वेणिषु भूयणादें लणिय नरिंदे सोखरि छत्रा। चिरुराछु पुंडरिग्निणि पुरिहे।
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अथवा, श्रेष्ठ रमणी के रूप से रंजितमन, जो मनुष्य झूठ बोलेगा, कामदेव के तीरों से भिन्न उसे वह स्वीकार नहीं करेगी और वह नरकवास में प्रवेश करेगा। तब अत्यन्त विरह से भरे हुए इस काल में कुमारी का सघन स्तन यौवन आनेपर छहखण्ड धरती को जीतकर देवों, विद्याधरों और सूर्य को निस्तेज करता हुआ अपने गजवर को प्रेरित कर राजा आ गया। उसने पुर में प्रवेश किया और अपने घर आया। मधुर आलाप और प्रणयभाव से उसने चिरसन्तप्त अपनी कन्या से कहा- "हे पुत्री! तुम शोक मत करो, लो स्वीकार करो, स्नान-विलेपन- कंगन और परिधान। गुरुजनों को रंजित करो, भोजन करो, बाद्य बजाओ, नाचो गाओ, अक्षर
पढ़ो, पक्षियों को पढ़ाओ, तुम्हारा मुख तीनों लोकों में भला है, यदि मैं उसे नहीं देखता तो मैं जीवित नहीं रहूँगा।" तब पिता के कथन को कुमारी ने मान लिया। वह फिर आकर और प्रणामकर बैठ गयी। बिरह से दुःखी पास बैठी हुई उसका आलिंगनकर और सिर चूमकर, नेत्रों को आनन्द देनेवाले राजा ने कहा-'मैं एक अत्यन्त पुराना सुन्दर कथानक कहता हूँ हे कामदेव की लक्ष्मी कृशोदरी, तुम सुनो। पत्ता- पहले यहाँ पुण्डरीकिणी नगर में इस जन्म से पूर्व पाँचवें जन्म में, मैं नित्योत्सववाले कुल में अर्धचक्रवर्ती का पुत्र हुआ था ॥ ३ ॥
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