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श्रीमती वज्ञद। डंकी पुत्री स माधरिक परि सूती॥
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सहयरु।। घता को किलकंठ सभाषदो कंठो कोणो
कटि मुहरसुमुहे सिद्दर सुहसुवासिडिनरु परिहि दिवपारिजाकिम राय | राउयक
जयजायः काखपहितउकिरधुञ्चन्त्रण सहार्थक वं कत्राणु गोवंग पयसघुलतई केसपास पार सुपर चित्रहं जाहिन उ सुरगुरुविण नाव स्पड फणिवर विषयक साजाम उलियनेत्री सिरिहरेसत्रम भूमिट्टिसूत्रा णिसिमसहर करहिमल वलेंती सालसुगविलासवती मादरवणुजस दरुजिए आमूड कहिमिणमा दिवाण कानून वा पार्न सम नंदहिदि पापा यो युद्धल हर्दिता उहिन क ल चारण नियलिन कमादिणि तारखा सुरजति देता हतहि जम्मा घरण खणे सरियई सग्नल वेतरूस सरवि थक्क श्मणेल
धत्ता- कोकिल के कण्ठ के समान उसके कण्ठ को देखकर कौन उत्कण्ठित नहीं हुआ। उस मुग्धा का मुखरस शुभ सुवर्ण की सिद्धि करनेवाला सिद्धरस के रूप में प्रतिष्ठित था ॥ ७ ॥
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अनेक रंगोंवाले नेत्रों से राग करनेवाला अनुरक्त विश्व उस समय एकरंग का हो गया। भौंहों की वक्रता से उसने किसकी धूर्तता और वक्रता का अपहरण नहीं किया। उसका केशपाश अंगोपांग प्रदेशों के निकट आते हुए दूसरों के चित्तों के लिए पाश के समान था जिसके रूप का बृहस्पति भी वर्णन नहीं कर सकता।
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नागराज भी जिसका वर्णन नहीं कर सकता। वह जब आँखें बन्द किये हुए, श्रीगृह में सातवीं भूमि पर, चन्द्रकिरणों से हिमकणों को ग्रहण करती हुई अलसाये अंगविलास को धारण करती हुई रात्रि में सोयी हुई थी कि मनहर उद्यान में यशोधर नामक जिनवर आये। देवसमूह कहीं भी नहीं समा सका। वीणा वंश और मृदंगों के निनादों, नाना स्तोत्रवृत्तों की स्तुति शब्दों से भारी कोलाहल उठा उससे कन्या का निद्राभार खुल गया। धत्ता- वहाँ देवों को देखते हुए उसके जन्मावरण एक क्षण के लिए हट गये। स्वर्ग के जन्मान्तरों को याद कर उसके मन में ललितांग की लीलाएँ बैठ गयीं ॥ ८ ॥
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