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सम्म गणसरिरमा ला जो मिसिरयाले वहिसाणसाई जोस कावसाइ तिबुरू हओ वडू साहजेह रवियरवि सदर जाएगा सदर औवरिसंतिम हि। इस दिग् देहि जोखणिससक दम ससे तदपिवाख पिढियास वास पणवतिपाय प्रकृतिराय परलोक्रम समापवत्रा चिरं सवार झाई सवाई रिमिणाणकारि जिधम्मचारि गिरिवरति सोकंदरमिनिवसकलाणे दोगड स्वीता तामश्था रथपञ्चलिए दंडिखंडपसरेपिषुथविसन पसविसाइमहासदेहे अश्यमन्त्र यत्तु सन्निपनदियन तव पहाव दिसावयवासाठ उत्णुसोपिदिनासन कक्षदश्वेंहदा लिहिणे हुईदो यगोत्रनियंविणि कहहिदेवस जाहि दीणविमत्र पियवयाहिं ताप लाइभूणिसमणवहार दीप दियाउदिमश्नु समापन सिणिप्रति आकमिमांतर आसिका यजजपरकम्मत गामपलासचेतदिंगह वर देविलुसुम तासरंजियम गेर्हिणिता हे धूय ललिमायादशा
रश्दूई वी मरानसिइंड पढंत हो जीवाजीवलेयसावंतो एक्कहिंदिणेवणे खंतिसणा हहो हमेविस २२५
जो पाप से रहित हैं, जिनकी चमड़ी और हड्डियाँ ही शेष बच्ची हैं, जो नदियों के वेग से रहित शिशिरकाल में बाहर शयन-आसन करते हैं, जो षड् आवश्यक कार्य करते हैं, जो तीव्र उष्णता से महान् वैशाख और जेठ में रविकिरणों को सहन करते हैं, योग से शोभित होते हैं, जो मुनि शशांक (मुनिचन्द्र ) दूसरों की शंका को दूर करते हैं। ऐसे पिहितास्रव मुनि के वास पर जाकर राजा पैर पड़ते हैं और परलोक का मार्ग तथा स्वर्गअपवर्ग के विषय में पूछते हैं। वह पूर्व के जन्मों को जानते हैं। ऋषि ज्ञानधारी हैं और जिनधर्म का आचरण करते हैं, वे इस गिरिबर की धरती में लीन दुर्गतियों के नष्ट करनेवाली कन्दरा (गुफा) में रहते हैं।"
घत्ता - तब स्थूल स्तनोंवाली मैंने अपना जीर्ण-शीर्ण वस्त्र फैलाकर स्थापित किया और महासभा में प्रवेशकर साधु के चरणकमलों को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ।। १६ ।।
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निरिनामिका पिहि ताश्रयमुनिना करण
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अपने तप के प्रभाव से इन्द्र को प्रभावित करनेवाले पिहितास्रव मुनि से उन लोगों ने पूछा कि मैं किस दैब से दरिद्र और नीचगोत्र की स्त्री हुई? हे देव बताइए, आप सच जानते हैं, दीन भी मुझे प्रिय वचन से प्रसन्न करिये। तब श्रमणगणों में प्रमुख वे कहते हैं कि दीन और राजा, दोनों मुझे समान हैं। हे पुत्री ! सुनो, मैं जन्मान्तर कहता हूँ। दूसरे जन्म में तुमने जो कर्मान्तक किया था। पलाश गाँव में वहाँ एक गृहपति था देवल नाम का। मति रंजित करनेवाली उसकी सुमति नाम की पत्नी थी। उसकी कन्या तू हुई। किसान-कन्या होते हुए भी तू युवकों के लिए मानो रति की दूती थी। बीतराग सिद्धान्त को पढ़ते हुए, जीव और अजीव के भेद का विचार करते हुए, शान्ति से युक्त समाधिगुप्त मुनिनाथ की हँसी उड़ाते हुए, एक दिन वन में
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