________________
कुदतवचरण असुसमणुधरणियहकहति ओतणुमलहरुविमलणविणाववासजायग्रह। जिणकाहपरपिंडजेणसहरगतिहाइम्महदामहाणम्महहा पाणवानुकरविसयपहहोसि। रिसणखणासमिलियन अणगास्त्राउपडिसियनकडूकससाराखावयनकुड़करणविया। सविखेचिदलातावानपणवळपरमजइमहिहरुपामख्यादिवशाधता जपोणहिंविविहाव मापति णिहिलाहगायकाव्य वेचणावपाचश्य मुद्दषिवामविलोमठाणावहाणिमाणुय रिसियजर्दिकरिहिदाउमङजम्मतहि जयविकिपिरिसिधम्मफलताहोएडाविहनियखल अजवामुना
हासमद्राधावि याधरकवि निषिकारित दानवधिकर
अथवा तपश्चरण। जिसका धरती पर सोना, अथवा काठ या तृण पर। जो मन के मल के बिना शरीर का पत्ता-जपानों और विविध विमानों से आकाशतल छा गया। नव प्रवजित (नया संन्यास लेनेवाले) ने मल धारण करते हैं अथवा जिसका जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया उपवास होता है, अथवा जिनके द्वारा शुद्ध विस्मित होकर उसे बार-बार देखा ॥७॥ आहार ग्रहण करते हैं ऐसे उन दुर्मद कामदेव का नाश करनेवाले स्वयंप्रभ को प्रणाम कर श्रीषेण के पुत्र के द्वारा चाहा गया अनगार धर्म स्वीकार कर लिया गया। शीघ्र ही उसने केशलोंच कर लिया। शीघ्र ही उसने इन्द्रियों के विकारों को रोक लिया। तब इतने में महीधर नाम का विद्याधर राजा परममुनि को प्रणाम करने उसने यह निदान बाँधा कि जिस कुल में इस प्रकार की ऋद्धि हो वहाँ मेरा जन्म हो। यदि मेरा मुनिधर्म के लिए आया।
का कुछ भी फल है तो शत्रुओं का नाश करनेवाला मेरा राज्य हो।
Jain Education International
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org