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महावलिराजा सुबुद्धिमंत्रीवा त्रथिना।
रहमि पइंदिनंस हवं कदमिचप्पियनजे हिते जडकगुरु जो पंकुतंजिन विहरु जलतनि वरदेव वन मसित हरिवा ढारोहण खगसुङ प्रहसन दियस तमुहं । छत्ता मदेसिनु चारणाला सिना देवक्याइणसंचल ससायकमासे चाननुहार उपरियल |१| तालामडावल स्थावरम्, कस्त्राए मिनुवैधनपरमु उवष्णुमशुदा करु लग्नणख सुखसुतियरु, आसम् मरणर्कितउचरमि। हन्यद्य हिंसामाणु करमि इनजपे विमंडलिकरयलदो परिय विपुत्र हो यश्वलहो परियणस्यणा खमाश्यां मणिलाव लावियर तप्पुमा क्य सिर विखंडियई इंदिय खु दिदंडियां मललरिअर वरिय छडियई माया मित्र ख डिया से सुपरिग्नड परिव्हरवि रडार संसरवि। पळाघुलत साहाखणे थिन, सहससि हरेडिएवर सक्षणे॥घ दिसित पवित्र जिणपडिविजय दम समरदिं। वालिय चमरदिं खयर कुमारदिंविजिय ।। १श कमक २०६
तुमने जो स्वप्न देखा है उसे मैं कहता हूँ। जिन्होंने तुम्हें चाँपा है वे खोटे गुरु हैं। जो कीचड़ है, वह दुर्गति का कष्ट है, जो जल है वह जिनवर का वचन है, सुविशुद्धतम तुम्हें मैंने धोया है और जो सिंहासन पर आरोहण है, वह सुगति का सुख हैं। फिर वह, विकसित मुख उससे कहता है?
घत्ता- मैं कहता हूँ कि चारणमुनि द्वारा कहा गया हे देव, कभी भी झूठ नहीं हो सकता। श्वास के साथ, एक माह में तुम्हारी आयु परिसमाप्त हो जायेगी ॥ १० ॥
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तब, पाप से शान्त महाबल कहता है- 'तुम मेरे कल्याणमित्र और परम बन्धु हो। तुम मेरे पिता और दाएँ हाथ हो, शान्ति करनेवाले आधार स्तम्भ हो मेरी मृत्यु निकट है, अब तप क्या करूँगा? मैं इस समय
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संन्यास से मरता हूँ। इस प्रकार कहकर हाथ जोड़े हुए अपने पुत्र अतिबल को राज्य देकर उसने परिजनों से क्षमा माँगी। मुनिभावना के सूत्रों की भावना की शरीर-मन बच और सिर को भी मूँड लिया, विद्याधर राजा ने इन्द्रियों को भी दण्डित किया। पाप से भरे आचरण छोड़ दिये, माया-मिथ्यात्वों को खण्डित किया। समस्त परिग्रह का परिहार कर आदरणीय अरहन्त की याद कर आन्दोलित सहकार बन में सहस्रशिखर जिनमन्दिर में जाकर स्थित हो गया।
घत्ता–शुद्ध पवित्र जिन-प्रतिमाओं की जिनपर भ्रमरों को उड़ाते हुए चमरों से विद्याधर कुमारियों के द्वारा हवा की जा रही है, उसने अभिषेक और पूजा की ।। ११ ।।
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