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नपवित्रशत दिवसहादिगुदीमसिदितताउणंचयहरविण्यलिकतिदेजााउलाहिदाहुणदु दितिद पाश्पवालकनुदिसणारिणविरविमुक्कदिक्वरिगणियारिण पमलेवित विमलविदलवा रहाव जावरासिअगसायणघडावा दंडरहियजणलोहियलिन्ना कालिंदावियदिसवहिधिता उघाडेविसराहामुहणिहहं सम्मुहिपहेलियसासामुहहाणसिंदूरकरडुकरछियाविनल वणझलदिजललछिरामयरंडोलवजगकमलदी पिउवायणवरूपसुहकमलहो गोमिर णापहरिरसलरिमड पामरायपनुववासरियन अळमियटजायविधवासय रस्तुमितुण मिलिदाउवेसण घना पुणुदाससंसारायण सुवणुप्रससविरतउ राहगिरिसरयरिणदा णवणादि लकारसिपंधित ॥२ श्रारणाल। आसोसिबरखमारसाखवियतानसो) नरूणिर्दय पाउ गणरमणणमायउ दिसिदिधायन सहश्मयणराउाछा संझाराजलजोरमियनमा तमझलकबालदिसमियाउ संझारायधुरिणजसकिठततमोहमनगाहेंढकिल सवारयविव विजक्रश्चियन सातमतवेरमवश्यलिउ चंदमदतमकरिस्मउ किंजाणहंसातासजलनउ मय णिदणदासस्युहयारउ तप्पवयुवरिहिंसबारत विसावखहिंधणयलेघोलवडहारून
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'प्रवेश मत करो' यह कहने के लिए जैसे उसने दिवस के लिए आग से सन्तप्त दीप दिया हो, मानो चार प्रहर तक अभिक्रान्त करते हुए नभरूपी गज से बन लोहू से लाल हो उठा। जैसे दिशारूपी नारी ने प्रवालों का क्षमारूपी रस को सोख लेनेवाला, तापसों का नाशक, युवतियों को पीड़ित करनेवाला मदनराज चूँकि घड़ा धारण कर दिग्गज की हस्तिनी के ऊपर फेंक दिया हो, मानो विश्वरूपी भाजन में फैलकर तलकर दलकर मनुष्य मन में नहीं समाता हुआ, मानो दिशाओं में दौड़ रहा है। सन्ध्याराग रूपी जो आग घूम रही थी उसे चूर-चूरकर और घोंटकर काल ने, दण्डरहित जनरक्त से लिप्त जीवराशि दिशापथ में फेंक दी हो, मानो सामने अन्धकाररूपी जलतरंगों के द्वारा शान्त कर दिया गया, जिस सन्ध्यारागरूपी केशर की आशंका की गयी थी, आयो स्निग्ध पूर्वदिशारूपी मुग्धा का चन्द्रमुख उधाड़कर, मछलियों की आँखोंवाली लवणसमुद्र की जलरूपी उसे तम:समूहरूपी सिंह ने ढक दिया। सन्ध्यारागरूपी जो वृक्ष खिला हुआ था उसे अन्धकाररूपी गजराज लक्ष्मी ने उसे सिन्दूर का पिटारा दिया हो, मानी पवन ने वरुण के मुख कमल, और विश्वरूपी कमल का ने उखाड़ डाला, चन्द्रमारूपी मृगेन्द्र ने अन्धकाररूपी गज को भगा दिया। क्या वही उसके जानुओं (घुटनों) चंचल पराग उड़ा दिया हो अथवा गोपिनी के द्वारा कृष्ण को कोड़ा-रस से भरा हुआ पद्मराग पात्र भुला दिया को लग गया जो मुगलांछन के रूप में शुभ करनेवाला दिखाई देता है। तल्पवेश में जो शत्रुओं को अच्छा गया हो, पश्चिम दिशा में जाकर लाल सूर्य अस्त हो गया, जैसे वेश्या ने उसे निगल लिया हो। लगता है। गवाक्षों से प्रवेश करता है, स्तनतल पर गिरता है,
घत्ता-पुन: अशेष भुवन सन्ध्याराग से आरक्त दिखाई देता है मानो पहाड़ों, घाटियों, नदियों और नन्दनवनों के साथ वह लाक्षारस में डबा दिया गया हो ॥२३॥
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