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प्प सरदेसुययं कारवि तितिक्षतमुपदर दस दिसु पसरण कुंदपुप्फदंतकवि ॥१३॥ळा म महापुराण तिसहिमहासुरसगुणा महाकश्शुष्कतविरश्यमहो सब तर हाणुममिय।। महाकā। सरद संस्याद शामकृष्ण वीसमोपरिन समतो संधि नमुद्यतीवमेचकरुचिकवनिश्चयेनुया घिता मलकिषुमूर्हता वहसता | बतमालतले जिंत मदमुनिमाद्यती वलोला लिलिवर करिगंडमंडला दिसिदिशिलिंपत्तीवपिवत्तानिमा ला तावखंगणे। तरह होला सिनई चिरुयवर्दिगुर शाररकमि लासगोतमुसेणिम दो सुणितेसहिपुराण अरकमित हिंत श्वा देवें बुध एम् णिमुर्हि होम देवलोक देख पुरुर जाति तदाणगई हनुस् दयस वहचिपा रचिलम ठाणे सादेवा ।। तिमहापुराणे लोलतिपलोडजतिजे दहतलोउसतिश सोकणविक कोण निर्धारित जीवाजी वह खिलनि चलनवल सोस सहावघड श्रायासमिवाखमिवोपनि वालिसकइंतिज | डम इंहेन देवें सिहारे किटानलोउ दबाइलोमय्या मणाई महिमारूयवेसा परवणार्थ जाळिताई।
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समर्पित करते हैं, वैसे-वैसे भरत में अन्धकार नष्ट होता है, और कुन्दपुष्प के समान उनके दाँतों की कान्ति दसों दिशाओं में प्रसारित होती है ॥ १३ ॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों वाले इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का भरतविनय और संशयोच्छेदन नाम का उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ।। १९ ।।
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सन्धि २०
"ऋषभ के द्वारा भरत से (पहले) जो कुछ कहा गया, उसे मैं इस समय छिपाकर नहीं रखूँगा। सुनो,
मैं त्रिषष्टि पुराण कहता हूँ।"
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तब वहाँ ऋषभदेव ने इस प्रकार कहा "हे मनुष्य, देवपुत्र सुनो, पुराण में त्रिलोक देशपुर राज्यतीर्थ-तप-दान- शुभ-प्रशस्त गतिफल आठों आरम्भिक पुण्यस्थान आदि बातें कही जाती हैं। जिसमें द्रव्य स्थित रहते हैं और दिखाई देते हैं उसे लोक कहा जाता है। उसे न तो किसी ने बनाया है, और न वह किसी के द्वारा धारण किया गया है। वह निरन्तर जीव-अजीवों से भरा हुआ है, चल और अचल वह अपने स्वभाव से रचित है। तथा आकाश में स्थित होते हुए भी वह गिरता नहीं है। लेकिन मूर्ख जड़जनों को इसका कारण बताते हैं कि सृष्टि करनेवाले देव ने इस लोक का निर्माण किया है। पृथ्वी, पवन, अग्नि, जल और लोक के उपादान द्रव्य यदि नहीं हैं तो
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