________________
दिच्छ तवक्षुणलिजिण वयणमंड वश्तंडिमडियाकचकवदि अणिवद्दअसुहकाचददि तढियवसरसारिपनलामाइखपखणसमिचिहाहसियक्कियरमियकयासणाशपरियाणा श्मश्रुविवासणारा जोचीसश्साखणहिबंधु गठप्पनगडणियपासबंधुाचन सारिसिमर ममहोऊनएण उतरूतणदिमुखपावाश्हे वणिरणअळिजगे तणजलरसजज्बधुडगाव
जंगलिवानकम्मरोम वार्डिवतंगवणयामातणावश्तणुकोखविधा ऑछल्लकिंच एखादोजाइकोजागा निणरुमुपविसबुबनियतिपरिणामितवजहक्किमममणमणहार नच ताअथवियाउनयुलराजश्वईचहखपालंगुराइतोखणधसिपिवासणणकाशकिराखंधा हैवाहिखिदिह अमावणिउकितपसिधह तासयमश्चवश्मविसाखमाशमियासिविण मईदलाव जिहण्याकरीसहमाय दोसउचितिद्गुणछिराया गुरुसासुधम्मुववहारुएल परमार
पानपरुणठसेदकोछनार्जितमासखंडमुणवधासलिलगमहापाढीणही मिसगिर हापियामापुणिमजविगउपियथाणदो २० जिड्सापारितिहणउसयलह परलायदा। लग्नेविकोपाषाह अलियाउंजणिपुणेविमुयायीरुणिमतदंड किंणयलीरू अायारपडेसासणे विक्षसटिहिकउन्नाणियचरणुवससिपायरणामविणायातागुरुणासणिनवरीयपण मर
तू जिनवर के वचनों का रहस्य नहीं जानता। हे वितण्डावादी पण्डित, तुम काव्य क्यों करते हो, अनिबद्ध तुम्हारे सब द्रव्य क्षणभंगुर हैं तो फिर वासना क्षण में नाश होनेवाली क्यों नहीं है? क्या वह स्कन्धों (रूप,
और असंगत कथन क्यों करते हो?" उस अवसर पर सम्भिन्न मंत्री जी ने कहा-"जीव जिस क्षण में उत्पन्न विज्ञान, वेदना, संज्ञा और संस्कार) से बासना बाहर है? तो हे धूर्त ! तुमने अननुभूत को क्षणिक क्यों कहा? होता है, वह क्षण विनश्वर है । हँसना, इच्छा करना, रमण करना, भोजन करना आदि को संस्कार से बहुत तब विशाल बुद्धिवाला स्वयंमति कहता है-"मृगतृष्णा, स्वप्न और इन्द्रजाल जिस प्रकार होते हैं, उसी प्रकार समय तक जाना जाता है। जो दिखाई देता है वह क्षणवर्ती स्कन्ध है । हे राजन, न तो आत्मा है और न पाशबन्ध यह सब इसकी माया है? अत: हे राजन् ! दिखाई देता भी विश्व वास्तव में नहीं है। गुरु-शिष्य और धर्म कर्म है।"
तथा यह व्यवहार बास्तव में नहीं है और न स्वदेह है। घत्ता-तब मुनि-सिद्धान्त के उस भक्त ने क्षणवादियों को उत्तर दिया-संसार में बिना अन्वय (परम्परा) पत्ता-सियार मांसखण्ड छोड़कर जल में उछलती हुई मछली के ऊपर दौड़ा। मांस को गीध आकाश की कोई वस्तु नहीं है। गायों के शरीर का जलरस ही दूध बनता है ॥१९॥
में ले गया और मछली डूबकर अपने स्थान को चली गयी ॥२०॥
२१ यदि बेचारी वस्तु नहीं है, तो कछुए के रोम, वन्ध्या का पुत्र और वह आकाशकुसुम भी हो, यदि वे जिस प्रकार सियार उसी प्रकार मनुष्य भी दो प्रकार से भ्रष्ट होता है। परलोक के लिए लगकर कौन नहीं होते तो बताओ एक क्षण के लिए कौन स्थित होता है और जो अस्तित्वयुक्त है वह पुनः क्षय को प्राप्त नष्ट नहीं होता। झूठी बातें सुनकर (मनुष्य) धैर्य छोड़ देता है और इस प्रकार नरक-भीरु अपने शरीर को क्यों होता है। जिनवर को छोड़ सत्य को कौन जानता है? जीवादि को छोड़कर तत्त्व परिणामी होता है। दण्डित करता है। आकाश गिर पड़ेगा, यह सोचकर त्रस्त होता है, 'टिट्टिभ अपने पैर ऊँचे करके रहता यदि कटा हुआ मन मन के भाव को जान लेता है, तो अन्य के द्वारा स्थापित मन को अन्य ले लेगा। यदि है।' तब मुनि के चरणों में प्रणाम से विनीत चौथे मन्त्री ने कहा,
Jain Education Interation
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org