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मणि दडप. एजा नाना लाडारे अनोपरि अजिगरि सर्पजानः॥
सण सुमालि तादेवदीद कालेाच्छु धूपरासिहपरिदं घना घुचु कलत्रु चित्र धरेनि यि विनिहद पार पिठमरेक्षि अजगर इन यिय्डार ॥२४ पुसुदाढर्दिदतहिंटले अंधरे पसततं गिलडू ससिम णिजल कय सिहरन एट व सुपरयणि
मालिप सलव ये संसरिय मांतरण नलक्रि पिम् सिसुविसहर मूली सिउलाया सोया ता चिंति उखगवइजाय मण्ड को विवि
धम्मच तोकिनुलश्मा पुगेपितमुण्डि सासिय उत्पाद परिड ह्रयम् समादिष्मरनिसप्प किंणविद्यार्हिष्पणनेवस्य तंसु वितणणिवांणदण पिउणेहकरण की पिटमा पडियाम्पिधरुखवियकम्मु जिाणा हहो केरल कधि बुझेवियपिणा समासुक
अपने कुलरूपी आकाश का सूर्य था। हे देव, वह ( दण्डक राजा) लम्बे समय तक धनराशि के ऊपर अपना हाथ फेरता हुआ
घत्ता - पुत्र और स्त्री को अपने मन में धारण कर और आर्तध्यान से मरकर जिसमें विविध द्रव्यभार एकत्रित हैं ऐसे अपने भण्डार में अजगर हुआ ।। २४ ।।
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वह अपनी दाढ़ों और दाँतों से दलन करता, जो घर में प्रवेश करता उसे हँसता । जिसमें चन्द्रकान्तमणि के जल से रचित शिखरों के अग्रभाग से स्नान किया जाता है, ऐसे भवन में प्रवेश करते हुए अपने पुत्र मणिमालि
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दडक राजास नाता मुत्रारिक उपसर्य करोति। रयणमालिपदेष करिव्यजगरियण
लवारण।
को, अपने पूर्वजन्म का स्मरण करनेवाले विषधर ने देख लिया। उसने अपने फन गिराकर उसे अभयदान दिया। तब विद्याधर राजा के पुत्र मणिमालि ने सोचा कि यह मेरा कोई पूर्वजन्म का सम्बन्धी है, नहीं तो मदान्ध यह मुझे क्यों नहीं काटता ! फिर उसने जाकर मुनि से पूछा। उन्होंने कहा- "राजा दण्डक असमाधि से मरकर साँप हुआ है। क्या तुम अपने पिता को नहीं जानते?" यह सुन प्रिय के स्नेह और करुणा से कम्पित मन राजपुत्र ने अपने घर आकर, कर्मों का नाश करनेवाला जिननाथ का धर्म उससे कहा। उसे समझकर साँप ने संन्यास ले लिया।
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