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वैताद्य ऊपस्त्रि लिया पुरिनगर।
मी विसम सीसयचं दजा] [कहिया ॥धन्न]]]]] तदिवेयद्दमा सिन्दरि मझिपरिहिनदी सके हर रुपय यदंड उघल्लियठ मुहमतें विहितद्विग्नरमे दि हैरमियखबरे लयाउरिणाम
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मुन्ना वलिदं तिहिंहति पंचलिकां कारेंसस्पति गुरुगवरक कष्महिंसगति धयवडलिक ३
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घत्ता - जहाँ मध्य में स्थित विजयार्ध पर्वत ऐसा दिखाई देता है मानो पृथ्वी को मापते हुए विधाता ने रजत दण्ड स्थापित कर दिया हो ॥ ५ ॥
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उसकी उत्तर श्रेणी में, जहाँ विद्याधर रमण करते हैं, ऐसी अलकापुरी नाम की नगरी है, जो खिले हुए कमलों के परागवाले परिखा जल से घिरी हुई है जो शत्रुपक्ष के चित्त को क्षुब्ध करनेवाले परिधान से शोभित है।
बँधे हुए रत्नों से विचित्र प्राकाररूपी स्वर्ण कटिसूत्र, नाना द्वारों, मणि-तोरणों से ऐसी मालूम होती है। मानो कण्ठ के आभूषणों से शोभित हो। नन्दनवनरूपी नीलकेशवाली वह नगरी ऐसी मालूम होती है जैसे कोई अपूर्व वेश्या अवतरित हुई हो। जहाँ शिखरमणियों से आकाशतल को चूमनेवाले सात भूमियोंवाले घर हैं, मानो वह नगरी धूप के सुन्दर धुएँ से निश्वास लेती है, मानो मुक्तावलीरूपी दाँतों से हँसती है, मानो भ्रमरों की झँकार से हँसती स्वरों को गिनती है, मानो विशाल गवाक्षों के कानों से सुनती हैं। उसके ध्वजपट ऐसे हैं मानो अपने करतल
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