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सलोय सरक कोमोव कामुक रराज से संजय साहलाय खंजनन समसुद्द दरुणेजिमनरयल थिटन शह महासुराणेति
कोवापश्चक्क पारीणन्त्रणे विकायय खेम् रयणेनाम अमसूयण अणमणम सूड सिरिग्वणा वरघणघणडायल सिर सरदाराहिवश पुप्फयंततेन सहिमदाहरि सरदाणुमणिमदा परिट समत्रो॥ळा| संधिशाळा यमंगमादाय सरतकलेन संप्रति || चिंतास रहेसरु मट्रिपर मसरु द यचिनहं । यसपत्रदं। दिनहेदिय
कश्पुप्फयत विरश्या महाल विलास वापण णामाहार हमे उपामरुचिनयनसुगंलावण्या कामः कामाकृतिमुपेतः ध्रुवदं विणें किंकिरकिज जइणिममि
हे उदिएकहिंदिपणा मिय्यविश् वसुदा हिउग्रिम मणचिंतवर किंवा विष्णुर्थदें। गाणु विजइमिणा सुक्ष्यणु किंकरणापुणिरुवसमन किंवा
णिविद्य मन किं
भोजन। वह कौन-सा विधाता है, वह कौन-सा सुकवित्व है? चक्रवर्ती की प्रभुता का वर्णन कौन कर सकता हैं? स्त्रीरूपी रत्नत्व के लिए विख्यात, विद्याधर कुल में उत्पन्न आश्चर्य के रूप में उत्पन्न जन-मन का मर्दन करनेवाली सुभद्रा के साथ रूप, सौभाग्य, लावण्य और काम के नैपुण्य की रचना के द्वारा सुख भोगता हुआघत्ता - जिसका वक्ष:स्थल लक्ष्मीरूपी रमणी के श्रेष्ठ सघन स्तनयुगल के शिखरों से पीड़ित हैं ऐसा भरत अयोध्या में रहने लगा ॥ १६ ॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का भरत-विलास वर्णन नामवाला अठारहवाँ परिच्छेद
समाप्त हुआ ।। १८ ।।
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सन्धि १९
धरती का परमेश्वर भरतेश्वर विचार करता है कि यदि संयत चित्तवाले सुपात्रों को दिन-प्रतिदिन यह नहीं दिया जाता तो धन का क्या किया जाये ?
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एक दिन राजाओं को अपने पैरों में झुकानेवाले उस पृथ्वीश्वर ने अपने मन में विचार किया- "क्या आकाश चन्द्रमा के बिना शोभा पा सकता है? क्या नकटा मुँह शोभा देता है, क्या उपशम भाव के बिना ज्ञान शोभा देता है? क्या पराक्रम के बिना राज्य शोभा देता है?
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