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जको डिउवरगाम मन्त्रस्याहिणिवासद प्रबंतदमिधरियपरिहास अहवी सक्ष्णग्न हरिह ई छष्णमंतरावर सिह सहसहार हमेळार सह वत्री मजिमंडलियमही सहा देविहिंडता सदनासपुणु मेळ राहिव काह वत्ती ससहस अवरुहियह पिरुणिरुवम लाया ॥२४] घरेला वाणुविज्ञावपयासई पडदे पाडे तित्ती ससहास चनरासी लरकहं मायं गर्ह तेत्रियपुंजे रहा हंसर गई कोडिकिंकर या अहारहरुणियाउ वरं गई जुल्लिद्धिकोडिरसादपारसियह सह तिष्मि सय सामस्यिहं करिस लगल को डिपयहई फल सोरणधरिनिनिसहई कालणामुलिदि देशविचिन्नई वीणावे पडदवाशन्नई विक्रम हा कालु विसंजोयश असिमसि किसिन वयर इंट यह ऐसप्युविसमासा लवाई कई पोमुपिंग आहरण सबंध पईसबरसोई पंडु विदि विदेशाविरोदर कसमादेन संखथाऽवष्णु वदंतन सहरमण लिहिसारयण ईदेशसिरा वाड नरयणमात्र श्रमिचदं विधवा पदरण सालदेजायई कागणि मणिचम्मुविसिरिसवणे सारणा हो । रुपामहिदोसो हिमवई संस्उदरिकरिणा श्यामहं पण संपत्त्रश्र ४५ घर वश्यवपुरोदिउवल ६५ चन्नारिविस एसा केमरा घरसिर ध्यवारियरवितेयय वणिहितेवितदिजया संपाइयरक्चिय हलच्या मित्रमेवतपुरका शुडहं
करोड़ उत्तम गाँव थे। सात सौ रत्नों की खदानें, उनमें से पाँच तो दूसरों का उपहास करनेवाली, अट्ठाईस हजार समृद्ध वनदुर्ग थे और छप्पन अन्तरद्वीप सिद्ध हुए। अठारह हजार म्लेच्छ राजा और बत्तीस हजार माण्डलीक राजा।
घत्ता - म्लेच्छ नराधियों के द्वारा दी गयीं बत्तीस ( दो और तीस) फिर बत्तीस हजार और भी अत्यन्त अनुपम लावण्यवती, अविरुद्ध म्लेच्छ राजाओं के द्वारा दी गयीं बत्तीस हजार स्त्रियों से युक्त था ।। १४ ।।
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उसके घर भाव और अनुभाव का प्रदर्शन करनेवाले बत्तीस हजार नट नृत्य करते थे। चौरासी लाख हाथी, तैंतीस लाख चक्रसहित रथ, तीन करोड़ अभंग अनुचर, अठारह करोड़ घोड़े, एक करोड़ चूल्हे तीन सौ साठ सुन्दर रसोई बनानेवाले रसोइये। खेती में एक करोड़ रथ चलते थे। फलों के भार से धरती फूटी पड़ती थी। 'काल' नाम की निधि विविध फल-फूल और विचित्र वीणा, वेणु और पटह आदि बाह्य देती थी। 'महाकाल निधि' भी राजा के लिए असि, मसि, कृषि आदि उपकरणों का संयोजन करती थी। 'पाण्डु निधि'
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नाना रंग के ब्रीहि (शालि) तथा प्रमुख अनेक प्रकार के धान्य प्रदान करती थी। 'नैसर्प निधि' शयन, अशन और भवन आदि देती थी। 'पद्म निधि' वस्त्र, 'पिंगल निधि' आभरण और 'माणव निधि' अस्त्र-शस्त्र देती थी। स्वर्ण ढोते हुए 'शंखनिधि' नहीं थकती थी। समस्त 'रत्ननिधि' सब प्रकार के रत्नों और लक्ष्मी उसके उर तल पर अपने नेत्र प्रदान करती थी।
घत्ता-असि, चक्र, दण्ड, धबल छत्र उसकी आयुधशाला में उत्पन्न हुए। कागणी मणि और चर्म मणि भी अपने आप राजा के भाण्डागार में आ गये ।। १५ ।।
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विजयार्ध पर्वत पर शोभित मुख अश्व, गज और स्त्रीरूपी रत्नों की उत्पत्ति हुई। उसके बाद राजा को गृहपति, स्थपति, पुरोहित और सेनापति प्राप्त हुए। अपने गृह शिखरों के ध्वजों से सूर्य के तेज का निवारण करनेवाले ये चार रत्न साकेत में उत्पन्न हुए। जो नवनिधियाँ थीं वे भी उसे प्राप्त हुई कि जो अभिलषित फलरूपों को सम्पादित करनेवाली थीं। जहाँ पर देहरक्षा में दक्ष
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