________________
कलया कि कण हो दूसहोडक इंरंत हो सणु दाढा पंजरे पुटिनणरु कोठ चरि कसंत हो ॥१॥ काखमंग हो को नियुक सुमात्र जे कुपरथक मईयई अहा वडवे हा विद्या च पश्वाल बाला विजा या महिला सुण गम्म जणि अणु लायरु कि हम पडि नामकेपालि कि हहिदावल कसम लिइ माणुसुमालि पनि काश्ते किरकिश देवमर शुमलान करे जंपडिकल तमसेज अप्पन लहिनि लारजाह लश्महि कजेमरा दिवसे जाहिं नहनि वडियन लु लानिहिद हरे पुणु सर जामिपरमेहिदे तपिसणे क्लिरह परिदहसि। अंतेवर सहपरियहण
समिणियं तद् इति उपसमि खमसूमपुराण! नंदीश पण अनुप दिदा लिउ महिमंडल नफा लि
छ तोकिं कारयण मरकर उपविजर्मन कोति किपरकर पत्रा खमाविखम सावें पश्तोसिन को सिट समुया परंजितेन च नदि नायक एउली रुदारुपासकले कपरका लिडाणा दिणरिंदवंसुउजालिउ पुरिसरमणुन जग यक छठ जेण कमउमडवल वेदान कासम उवस
धत्ता-दुर्लघ्य पापों से लांछित असह्य दुःखों और पापोंवाले यम की दाढ़ों में पड़ा हुआ कौन मनुष्य उबर सका है ? ॥ १ ॥
सरथु नाइबलि प्रतिविनिता कर
॥
जाता हूँ।" यह सुनकर भरतेश्वर ने कहा-" पराभव से दूषित राज्य मुझे अच्छा नहीं लगता। घत्ता–अन्तःपुर, स्वजनों, परिजनों और शेष लोगों के देखते हुए मैं तुम्हारे द्वारा जीता गया और तुम्हारे द्वारा स्वयं क्षमा किया गया। तुम गुणवानों में क्षमाभूषण हो ॥ २ ॥
२
३
कालरूपी महानाग से कोई नहीं बचता, केवल एक सुजनत्व बच रहता है। मैंने तुम जैसे बहुतों को प्रवंचित किया है। पृथ्वी के लिए पृथ्वीपालों पर अतिक्रमण किया है। फिर भी इसमें अभिलाषा समाप्त नहीं जब तुमने मुझे अपने बाहुओं से आन्दोलित किया और लड़ करके भूमि पर पटक दिया, तो चक्ररत्न होती। इसके लिए जननी जनक और भाई की हत्या क्यों की जाती है, जो स्वीकार कर लिया है उसका मेरी क्या रक्षा करता है? फिर जीवित रहते हुए कोई क्या देखता है? तुमने अपने क्षमाभाव से क्षमा को जीत परिपालन क्यों नहीं किया जाता ? अपने हृदय को पाप से मैला क्यों किया जाता है? यदि मनुष्य धर्म में अनुरक्त लिया, तुमने अपने प्रताप से कौशिक (इन्द्र) को भी सन्तुष्ट कर लिया। तुम जितने तेजस्वी हो, दिवाकर भी नहीं होता तो वह निकृष्ट है, उससे क्या होगा? हे देव, मुझ पर क्षमाभाव कीजिये और जो मैंने प्रतिकूल आचरण उतना तेजस्वी नहीं है। समुद्र भी तुम्हारे समान गम्भीर नहीं है। तुमने अपयश के कलंक को धो लिया है किया है उस पर क्रुद्ध मत होइए। अपने को लक्ष्मीविलास से रंजित कीजिए, वह धरती आप ही लें, और और नाभिराज के कुल को उज्ज्वल कर लिया है। तुम विश्व में अकेले पुरुषरत्न हो जिसने मेरे बल को इसका भोग करें। मैं, जिन पर आकाश से नीलकमलों की वृष्टि हुई हैं, ऐसे परमेष्ठी आदिनाथ की शरण में भी विकल कर दिया। कौन समर्थ व्यक्ति For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org