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वाड वालि मिट्टी क्षाधरिणा
जिणु संथुन ते कुमारें मुझसे वनिग्नन रावणखाण इसादे लग्न पश्मेनि दो दो सायरे थियन कलंक मिसणवस सहर तुझे होणाग्लियण नाह मोडमोद पोस हिहिप हपता सिवारियर्स गठ लोड विसबल हादगा कंदा हो विष्णु वसा डिं का नव्हो नप्पारिका खुसमाडि निग्रंथुणा हियगय नवणियमंचन दा विज पंथ विज्ञाणाव एप जम्मं हि नधिरविहरिहरू विदि एम्रभु गुरुसन्त्त्रियवं देवि मिछाडक्किउगरहेविर्निदेवि गावइल व तरुमुलुय्याड करेविससिरेवर विडरप्याड 118 सरपंचविधलियवमहेा धरपुर निश्मिविम काई पडिवमचमत पययपालिक निवारण हा नसणास मुक सेमुविहस विस हदसमासा कुह घुटयाई सतह चरियनिसेजसेअर अरशद व हवेधणुमय जागवणसरवि साहसरहंत लग्न वार मुणिमनुपपेर जब मजा मिलि २१য়
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"हे देव, क्रोध तुम्हारे क्रोध से ध्वस्त हो गया, मैं जानता हूँ राग भी सन्ध्या से जा लगा, दोष भी तुम्हें छोड़कर चन्द्रमा में स्थित हो गया है, वह उसमें कलंक के रूप में दिखाई देता है। तुम्हारी ध्यानरूपी अग्नि के भय से नष्ट हुआ मोह औषधियों में प्रवेश कर गया है। तुमने शत्रुसंगम को बढ़ानेवाले, सब के ( स्वर्णादि के ) प्रति लोभ बढ़ानेवाले लोभ को सन्त्रस्त कर दिया है। कामदेव के दर्प को तुमने नष्ट कर दिया, और काल के ऊपर काल को घुमा दिया। आप परिग्रह को नहीं चाहनेवाले निर्ग्रन्थ हैं, आप तप के नियम में स्थित और पथ-प्रदर्शक हैं। विद्यारूपी नाव से तुमने जन्मरूपी समुद्र को लाँघ लिया, तुमने रवि, हरि, शिव और ब्रह्मा को पार कर लिया।" इस प्रकार भारी भक्ति से बन्दना कर मिथ्यादुष्कृतियों को बुरा-भला कह और निन्दित कर, जैसे संसाररूपी वृक्ष के मूल को उखाड़ने के लिए अपने सिर के बालों को उखाड़कर
धत्ता- उन्होंने अपने पाँचों बाण डाल दिये, काम और रति दोनों को छोड़ दिया, और जिनसे इन्द्र चरणों में आकर पड़ता है, ऐसे पाँच महाव्रतों को उन्होंने स्वीकार किया ॥ ६ ॥
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न तो उनके पास जूते हैं, न शयन और आसन उन्होंने अशेष आभूषण और छत्र भी छोड़ दिये। वह दंशमशक, शीत और उष्णता सहन करते हैं। क्षुधा, लोगों के दुर्बचन (क्रोध) और तृष्णा सहन करते हैं। चर्या, निषद्या, शय्या, स्त्री, अरति लोगों के चले जाने और वन में रहने पर बधबन्धन, सिंह- शरभ और तृण के शरीर से लगने पर भी वह निवारण नहीं करते, मुनि याचना में भी अपने चित्त को नहीं लगाता, सूखेपसीने और मलसमूह (मैल) से लिप्त होने पर भी वह स्थित रहते हैं,
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