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* रंधायारुथिय भास्वर
ससिले नणिहाल इसे कप्युप मजार हो रहपासेयविंड तेल दिहुल्यागर्हिणमुत्ता हलादि हन करुश्दा दायार घेरेपश्त कर करन मोरपरुसप्यवियप्यवि मुधेक हवणगहिन कार व्यविधिना ॥ गंगा सरि हंस परकटल५ पिय विरहिणिगडयलई जाय ससियरपरका लियई। ध्रुव लाशँजनिक धवलई ॥ २४॥ श्रारणालं ममणमणियजंपिंग माणकॅपिर पणनविषयवंत रइस सरहसन पिया पिययमापियं रमनिसिरमतं । का केणविधणथणेणिसियन करयल कानक अयोध्यानगरी
金魚食
शशि का तेज अनेक हारों के समान दिखाई देता है, अँधेरे में रन्ध्राकार दिखाई देता है, और मार्जारों के लिए दूध को आशंका उत्पन्न करता है, उससे (चन्द्रमा) रति का प्रस्वेद जल उज्ज्वल दिखाई देता है, जो मानो सर्पिणी के मोती के समान जान पड़ता है। कहीं पर घर में दीर्घ आकार में प्रवेश करता हुआ किरण-समूह दीख पड़ता है, मयूर ने उसे सफेद साँप समझकर किसी प्रकार झपटकर खाया भर नहीं।
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खीरुषका डाक रण ।।
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घत्ता गंगा नदी, हंसों के पक्षदल और प्रिय से विरहिताओं के गण्डतल एक तो धवल थे ही, परन्तु चन्द्रमा की किरणों से प्रक्षालित होकर वे और भी धवल हो उठे ॥ २४ ॥
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अपने मन में कामदेव का जाप करते हुए काम से काँपते हुए प्रणय से विनीत, रतिरस और हर्ष से रंजित, रमणशील प्रिय से प्रियतमा रात में रमण करती है। किसी ने सघन स्तन पर अपना करतल रख दिया,
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