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गंगानदी तटेग गादेमागृह
रइयभिलया। मण सियणिलया रणवियपया चतुमपरख्या मुग्मशमला हिमकरवद
ला।। यता। गंगा णामसा, सुरसुंदरि सपिया री वेजोन्छ! गिण देवाई मिविसयगा।
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रागवश चरिं गुणवि प्फुरिटी हिम यधरियं चलि
यातुरिया तिवलितरंगा देवीगंगाणिचसामावं पाणियलाव। पत्ताधीरा सालंकारा। लवणपस
तिलक की रचनावाली, कामदेव की घर, जिसके चरणों पर नर नत हैं, ऐसी चंचल मकरध्वजवाली, मुनियों
की बुद्धि के समान पवित्र हिम-किरणों की तरह धवल
घत्ता — गंगा नाम की नेत्रों को प्यारी लगनेवाली सती सुरसुन्दरी थी, जिसने अपने रूप और यौवन से देवों को आश्चर्य में डाल दिया था । ९ ॥
रथचक्रवर्त्तिक उसेन्यु!!
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नरपति के गुणों से विस्फुरित चरित को हृदय में धारण कर, त्रिवली तरंगोंवाली देवी गंगा तुरन्त चली। सालंकार धीर भुवन में विख्यात
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