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सुनहिंसादिकांति मकरदिं सवा चरकरदि अदिमणिरिति हे पळे विसमण महि सिद्धिका रइपडिवरकमण जर्दिदावा मामदितरुणु मरगयवह होम व हरिण हिचदुणमदि रुदपरि हरवि पाहयर व सुन्नी संलरवि मुहसासवासुविसहरुपिय अवरहो विउमंग होए हम घत्रोछेविनममदि अर्दिज किणिस इस जिमाइएण पडिवरकपरके खमदीस जदिणी लरुरजियउ सिहिमज्ञारण विइंडिया किंमा त्रिदिवसा रकरणु, जहिसंकइसेजसाल ह जहिम्सहिदावल स्यणिडिलिंडमुडसवल अहिंदायन गुणगणमंडियउ मुणिसंसुयजलुपंडियउ जिणाईयो सियजीवदय जहि पसुविविलाय विधारय सुरहरिणिसेवइजासु त जहिहिंश्चक सरिगरुडपोमावश वैराणिबंधि
जहाँ अप्सराओं के द्वारा बिना किसी ईर्ष्याभाव के शबरियों के रूप की सराहना की जाती है, जहाँ मणिभित्तियों में अपने ही प्रिय (स्वजन) को देखकर पट्टरानियों के द्वारा सापल्यभाव धारण किया जाता है। जहाँ मरकतमणि के पृष्ठ (खण्ड) को दूब का समूह मानकर तरुण हरिण दौड़ता है, जहाँ साँप चन्दनवृक्ष को छोड़कर सोती हुई विद्याधर वधू को (चन्दनवृक्ष) जानकर उसके मुख के श्वासवास को पीता है दूसरे भुजंग की भी यही बुद्धि हो रही है।
घत्ता - जहाँ यममहिष को देखकर यक्षिणी का सिंह क्रोध नहीं करता, जिन भगवान् के माहात्म्य से प्रतिपक्ष और पक्ष में क्षमाभाव दिखाई देता है ॥ २० ॥
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यथा आदिनाथ अतिशय एकत्र सळितेः॥
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जहाँ इन्द्रनील मणि की कान्ति से रंजित मयूर को मार्जार नहीं जान सका। जहाँ शीलधनवाले संयमी मुनि को भी यह शंका होती है कि यह मोती है या हिमकण जहाँ औषधिरूपी दीप प्रज्वलित है, और रात्रि में शबरसमूह सुख से चलता है। जहाँ मुनियों के संग से शुक समूह गुणगण से मण्डित और पण्डित हो गया है। जहाँ जिननाथ ने जीवदया घोषित कर दी है, जहाँ पशु भी और किरात भी धर्म में रत हैं। जिसके तट की सेवा देवहथिनी करती है, जहाँ चक्रेश्वरी का गरुड़ भ्रमण करता है।
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