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लठणरियणु वियलणारिहिणावीवंधण चिडरलारुददवंधुधिपसिदिखाहवलंबुसवर साणायल चलश्चललायणजअलबत्दासश्यंगुधूढसेउबर साणवरलाश्वडावश्य स्वार्थवादलविहखशदेवतिलन्निमतिलतिखविडशविरदंउच्चसउवाश्मीपश्मााणवथा वयपापिय पिजसंतप्यविमरमणिय एम्वथुतदादिमनधासण शिवसलमपुकिळस सासण हिमशरिजलहिमशमदिरामहो कसलखमलरहहोमडलायहो कुसलखउकुरु बसणरेसहा कुसखुजलहरणिम्घासहो कुसलुखम्पामिविणमिङमारहो कुसलय खिद्ययाशिवयरिचारदो दूर्वतरकसलपरिददो कुसलुगाहणिहिलहोनिवर्मिदहो एकजे अक्कुसलसहितकठिठबईहरिदेव परिसपिठाचारहर्वधुङगङजशासपिस । एकतरु रविमलकिरणारंपंकदह ताशनिवारजलहसाधारणाली सोसोदायाने मटा खणसुधम्मदाकणसचासाचत सदारूयणसाथणा तिजगगाड्णाइसिउण्डन्न ताकासमहरुकाकरकरमलकासमईकाजलकखालकावडसरवकवणाकरखवाय हरवद्रावरणस्वरकप्परूरकारकसमाहाचामारयणायस्करसाललासचामाहाडी अनपदाववाहमि हनिहाणुर्कियसवाहमि तायोपचएसडजेरबजायरान
नारी के ऊपर का वस्त्र गिर जाता है, और नीवि-निबन्धन खुल जाता है। पक्का बँधा हुआ भी केशभार खुल पत्ता-दुष्टों के द्वारा अन्तर पैदा कर देने पर दूरस्थ भाइयों का स्नेह नष्ट हो जाता है, सूर्य कमलों के जाता है, रज होने लगता है, श्रोणीतल खिसक जाता है । नेत्रयुगल चंचल होकर मुड़ने लगता है, शरीर पसीना- लिए किरणें भेजता है परन्तु जलधर उनका निवारण कर देता है ॥१५॥ पसीना हो जाता है। रम्भा नवकदली की तरह हिलने लगती है, रति की हवा से और अधिक कँपने लगती है। हे देव, तिलोत्तमा क्षण-क्षण खेद को प्राप्त होती है और विरह से उर्वशी खेद को प्राप्त होती है। हे स्वामी, मेनका थोड़े पानी में मछली की तरह सूर्य की किरणों के सन्ताप से सन्तत हो उठती हैं।" इस प्रकार स्तुति हे दानवों को नष्ट करनेवाले कामदेव, सुनो और अपना चित्त सुन्दर बनाओ। त्रिलोक को सतानेवाले करते हुए दूत को उसने आसन, वसन और भूषण दिये और सम्भाषण किया-"हिमगिरि से लेकर समुद्रपर्यन्त अपने बड़े भाई से रूठना ठीक नहीं। चन्द्रमा कौन और उसकी किरणों का समूह कौन? समुद्र कौन और महीराज मेरे भाई भरत का कुशल-क्षेम तो है? कुरुवंश के राजा का कुशल-क्षेम तो है! समुद्र के समान उसकी जलतरंगें कौन? तुम कौन और भरत कौन? पण्डितों को यह विकल्प (या भेदभाव) अच्छा नहीं निर्घोषवाले (उनका) कुशल-क्षेम तो है ! नमि-विनमि कुमार का कुशल-क्षेम तो है, राजा के परिवार का लगता। क्या मैं कल्पवृक्ष की फूलों से पूजा करूँ? क्या समुद्र को हाथ के जल से सीचूँ? क्या सूर्य के आगे कुशलक्षेम तो है!" दूत बोला- "हे राजन्, कुशल-क्षेम है, समस्त राजसमूह का कुशलक्षेम है। सुधीजनों दीप जलाऊँ, मैं हीन हूँ, क्या तुम्हें सम्बोधित करूँ? तात (ऋषभ) के बाद भरत राजा है और तुम भुवन में में उत्कण्ठा पैदा करनेवाला एक ही अकुशल है और वह यह कि हे देव आप बहुत दूर हैं।
एकमात्र प्रधान युवराज हो। Jain Education International
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