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श्कलज्जाववद जमसंदरिसिययरलोयपहीसाइविसङ्गविण्क्वहिवसशसिहिद्यपिछश्सवरावस इकलगवाणगायश्सावा
दो साचियपश्लावियसाधषदोप मंसशिहिमजास्पद सोड
तपुमक्कमजारयह परदारूनिवारिजा यदाकणाइसहविजा।
यह अदरियनअलिझंजगहो! तिगादपाउअलिगडणही
महनिम्नतम्पश्पेचिनन उद्धेसरवेदेव दिवचियरल झ्यलर
हायुर घरमेसहजिपंचेदि अमरा मुरमपुत्रावगायतफा
णिवदिठारधानन्यमहाउरतिस हमहासरिसगुणालकार
महाकायतविरामदासबस हाणुममिपमहाकवाउत
रसदपसारमाध्यामपसारसमोपरिछ
जन प्रतिगृहमटत्तिअवैदिजनवर संगमावसति सरतस्यवल्ली
सासोकार्तिस्तदपीधिवत श्रवकं । पथविष्पिनिणदरकमक
मलु ग्यरेविकालासहा साकाहासार कसंचलिउधरणिणावणियवासहोली आरणाला विणिहकमकुंडला स्याणमहला/मनपश्या व
इसप्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का उत्तर भरत प्रसाधन नामक पन्द्रहवाँ
परिच्छेद समाप्त हुआ॥१५॥
कहाँ भी वध नहीं होता। हे परलोक पथ को दिखानेवाले, आपकी जय हो। यहाँ सिंह और शरभ एकसाथ रहते हैं, मयूरों के च्युत पंखों में शबरी निवास करती है। हे स्वामी, उसने आपसे व्रत ग्रहण कर लिया है अत: बह श्वापदों के लिए (बध के) गीत नहीं गाती। हे स्वामी, तुमने माजारों को मांसद्धि (लोभ) और मधु (सुरा) के माजारों (मद्यपों) को मदिरा, जारों को परदारा का निवारण कर दिया। तुम विद्यारतों के अच्छे स्वामी हो। हे स्वामी, आदमी का जो पाप और झूठ भ्रमर और अंजन का अनुकरण करता है (पाप लिप्त होता है। उसे मुंह से निकलते ही तुम पकड़ लेते हो। हे देव, आपके होने पर आकाश देवताओं से ब्याप्त हो जाता है।
घत्ता-इस प्रकार अमरों, असुरों, मनुजों, पक्षियों, नक्षत्रों और नागों के द्वारा बन्दित पंचेन्द्रियों को जीतनेवाले परमेश्वर की भरत के द्वारा स्तुति की गयी ॥२४॥
सन्धि १६ जिनवर के चरणकमलों को प्रणाम कर और कैलास से उतरकर पृथ्वी का स्वामी भरत अपने निवास साकेत के सम्मुख चला।
सूर्य के समान कर्णकुण्डल और रत्नों की मेखलावाले, मुकुटपट्ट धारण किये हुए
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