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विउ सोमहिवडतन्नारदेो सुरहंमिधम फलिप लगाइ सिरकरु परपडि हारो ॥४॥ इंदीवरलोजपुसकमपु सगाई वरतण महिलुलियतपु उहवि गाड लिगाड विगाह हो वह संधाणुजे। कारणुमहदो पर्छसामिय संधिनजाखम रु वन संधिन लरकइत हो खजरु पिउडा सुण्डिजिण्डिस प्राहिंविषुण्ड कोलहरूप लश्लष्यवहाराचलि । या मदिधुलियनतारा थलिन लक्ष्म रधरणी हलवश कुसमणिईचिय विपय लगानरालकै कपल इविडसन घणघणाई लइदेवेंगई
उसने शत्रु का प्रतिहार करनेवाले धरती के राजा को प्रणाम किया। देवों को भी तुच्छ धर्म के फल से लक्ष्मी हाथ लग जाती है ॥ ४ ॥
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इन्दीवर के समान नेत्रवाला स्वच्छ मन वरतनु की धरती पर अपने शरीर को झुकाते हुए वह कहता
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वर्त्तनदेव सरय वक्रवर्तिकश
त्रागइवाइक रिनमस्कारंसुति करण।।
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है-"तुम्हारा शरीर युद्धों का निग्रह करनेवाला है, तुम्हारा सन्धान पूजा का कारण है। हे स्वामी, तुमने जिस पर सर-सन्धान किया है उसके शरीर की सन्धियाँ गीध खा जाता है। जिसका पिता स्वयं अनिन्द्य जिनेन्द्र हैं, हे स्वामी! पुण्यों के बिना तुम्हें कौन पा सकता है? लो यह हारावलि, स्वीकार करो, मानो यह धरती पर पड़ी हुई तारावलि है। लो देवभूमि के वृक्षों (कल्पवृक्षों) से उत्पन्न नित्य नव-नव पुष्प लीजिए। नूपुर लें, कंकण लें, घन घन दिव्य शस्त्र लें।
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