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सकलखिए, वरलडसंगरपइरणफोडन चडुल्डरंगरयणरून आयविपाहिदेवि गिरिदार दो। धरिव संमुखंधार ॥ छविले यिनुयधले डकारेदिपनिरुरनळें परन रडिखल महिन्दर दल उम्मु कुदंदुपरि वशी मुक्कयपहरण मिहरिशिग्गनखुर लिस का एग। बलयुगमुविपाविणरणियरहि जगजयपइसियायो । तादंडाि पहा रविहडिय कवाडकि कारसह सम्म खुद्द विद्यवियसणमुदमुक फार पक्का रजनी सिसिहि जाल जालामाला कलाव देलापलित्रणा संतमत करिचरणपाललियमणिडियन संअंत मत्र सहल रोललीम समुदायज्ञारलखि कहतणिग्या हिंद दरी एक सिचयय्यडियय नहरु लिरिश्रसियतावसुहारियशारहार हारवमुयंत सवरी पुलिंद सिसुद्धा समाणकेसरिकि सारण कलिसको डिदा रियरंगरु हलवा हडमांजायंगु हाडवारा उसंत देखगई।म हिरमगाई घोसेणप्पाण नर्शिद मुणिमवेअणुनि पिधेयपुनि गर्डेता डिउकंद 105 वशे तार्मजा रहार के ऊरकिरीड करत तूसो अमरोअमर समरसंहविहरिय वरिसासो चडिया वलेवा इक्रियंघिसेवो रिद्धिवंत आनंरंतो द्रुत्तिकामो तगिरिणामोसेल १३१
उस चंचल अश्वरत्न पर श्रेष्ठ योद्धाओं के युद्ध में प्रहारों से प्रौढ़ वह सेनापति आरूढ हो गया। जाकर गिरिद्वार को पीठ देकर स्कन्धावार के सम्मुख अश्व को थामकर
घत्ता-लाल-लाल आँखोंवाले उसने हुंकारते हुए (उस दरवाजे को हटाने के लिए शत्रुमनुष्यों को प्रतिस्खलित और पहाड़ को चूर-चूर करनेवाला वह दण्डरत्न पूरे वेग से फेंका ॥ १ ॥
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अस्त्र के फेंके जाने पर अपने खुरों से वन को रौंदता हुआ अश्व चला। जिसका मुख विश्व-विजय के लिए हँसता हुआ है, ऐसा बल में श्रेष्ठ भी वह नरसमूह के द्वारा नम्र बना दिया गया। तब दण्डरत्न के निष्ठुर प्रहार से विघटित किवाड़ों के किंकार शब्द के कोलाहल से क्षुब्ध और दलित साँपों के मुखों से छोड़ी गयीं फूत्कारों से विषाग्नि की ज्वाला जल उठी, ज्वालामालाओं से एक साथ प्रदीप्त और नष्ट होते हुए, हाथियों के पैरों की चपेट से उछलती हुई मणिशिलाओं के पतन से क्रुद्ध और गरजते हुए सिंहों के शब्दों से जो भयंकर हो उठा। भयंकर ताप के भार से भरित गुफाओं के भीतर से निकलती हुई अहीन्द्र सुन्दरियों (नागिनों) के
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द्वारा मुक्त सिचय (वस्त्र, केंचुल ) से प्रकट हुए स्तनों से विदारित हृदयवाले रतिरसिक तपस्वियों के चरित्रभार के हरण को जो धारण किये हुए हैं। 'हा' रव (शब्द) कहते हुए शबरी पुलिन्दों के शिशुओं के द्वारा देखे गये सिंह किशोरों के नखरूपी वज्र कोटि के द्वारा विदारित हरिणों के रक्तरूपी जल के प्रवाह से वह गुहाद्वार दुर्गम हो उठा।
धत्ता- दग्ध होते हुए पक्षियों, पहाड़ों के पशुओं के घोष से वह (सेनापति) अपनी निन्दा करता है। कि वेदना को नहीं जाननेवाला अचेतन भी यह दण्डरत्न से ताड़ित होने पर आक्रन्दन करता है ।। २ ।। ३
तब मंजीर, हार, केयूर और किरीट के चमकते हुए आभूषणों वाला तथा देवताओं के युद्ध में संघर्ष के द्वारा जिसने शत्रुशासन समाप्त कर दिया है, ऐसा देव अहंकार छोड़कर चरणों की सेवा चाहता हुआ ऋद्धि और बुद्धि से सम्पन्न शीघ्र वहाँ आया। प्रचुर भक्ति का अभिलाषी विजयार्ध नामक,
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