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झिणिविराम पचंत वासिणी सेस लेवि यि मुद्देवि हेलापति खंडा वणिदरेति व्यसि करेकरेविवि जमद इस्मम्मुडच लिउराउ मेणास हाउ दियहेदिपञ्च तहिं सिहर के मुणि मोस्कुजेम दिहउ!!! महिहरु ससुर समुद्र कुहरणहरु सर देण विइिंडियला मसर समहेण समझे कडवे किए कडियविंगु । गुरुवंसुगरूयवं सुझवे यावरुथिरेण गजियगड परिमजयग उजियण सारंग दमण सरंग पणु, सरड रपणु। अनंत ससावन सावरण पालियवरण। वैताद्यपर्वतका संघियक्तिउपत्रिवेण विजयहो कर ना गिरिसोही दत्रणेण युवावर समुहसंपन्न । फाद्यारिकरि तिर्दिति खंडदिमेशण दे। मेरा दंडु वदश्वेधित्रन ॥ १०॥ तहि अवस्गुहादारहे। सहरें सुरतरुवरक
सैन्यनिकसित !
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राजाओं को जीतकर समस्त प्रत्यन्तवासियों को लेकर अपनी मुद्रा देकर, खेल-खेल में तीन खण्ड धरती जीतकर, तलवार अपने हाथ में लेकर सेना की सहायता से भरत विजयार्द्ध पर्वत के सम्मुख चला। कुछ दिनों में वह उस पर्वत के शिखर पर इस प्रकार पहुँचा जैसे मन मोक्ष पर पहुँचा हो। उसने पर्वत देखा । सुस्वर उसने सुसरोबर, और पर्वत ने राजा को देखा। रथ सहित उसने भीमसरोवर (मानसरोवर) नष्ट कर दिया, और पूजा सहित उसने मधुयुक्त को कटक (सेना) से अंकित उसने कण्टकित भाग को, तुंग उसने तुंग को, गुरु (महान्) वंश में उत्पन्न उसने गुरुवंश को स्थिर ने स्थावर को, प्रतिगर्जन करनेवाले गज ने गरजते हुए
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गज को, ऊर्ध्वध्वज और तुरंग सहित उसने हिनहिनाते अश्व को प्रतिज्ञा पालन करनेवाले उस श्रावक ने अत्यन्त श्वापदों को और राजा ने राजा को विजय के लिए नष्ट कर दिया।
घत्ता पूर्व और पश्चिम समुद्र तक फैला हुआ पर्वत अपनी लम्बाई से ऐसा शोभित है, मानो तीनतीन खण्डों के लिए दैव ने भूमि का सीमादण्ड स्थापित कर दिया हो ।। १० ।।
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उस अवसर पर गुहाद्वार से दूर, जहाँ सुर-तरुवरों के कारण सूर्य
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