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सरथराजा निच करनप्रादिरन प्रजाकरिकरि वर्तनदेवसा णकपरिसन्यव
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* लइउधणु। गुगु कट्टिविली लश्ना जियउ । करू सव एससिह सहर थिया । रेह दूसरू दि एयर मिम्मिल हे।। एावणा
कि जैसे सम्पूर्ण सुन्दर पुण्य हो । कोड़ों के प्रहारों से घोड़े शीघ्र प्रेरित हो गये, हवा के स्पर्श के विस्तार से ध्वज फहरा उठे। शब्द करते हुए चक्रों से साँप क्षुब्ध हो उठे। रथ प्रहरणों से परिपूर्ण और स्वर्णमय था । मणियों के घण्टाजालों से जो झनझना रहा था, मानों योद्धाओं के भार से आक्रान्त होकर शब्द कर रहा हो, महासर (जल या स्वर) वाले समुद्र के जल को कई योजनों तक लाँघने के बाद राजा ने धनुष हाथ में ले लिया। कोटीश्वर (धनुष) क्या पर्व की तरह, पर्वालंकृत (उत्सवों से अलंकृत गाँठों से अलंकृत) हर्ष उत्पन्न नहीं करता। वह सुकलत्र की तरह सुविशुद्ध वंश (कुलीन बाँस था, तथा उसका शरीर गुणों से (दया नम्रतादि गुण डोरी) से नमित था। डोरी खींचकर कानों तक लीलापूर्वक ले जाया गया हाथ ऐसा शोभित हो रहा था,
मानो श्रवण नक्षत्र में चन्द्रमा स्थित हो। उसपर तीर इस प्रकार सोह रहा था जैसे सूर्य से निर्मल (विकसित ) कुण्डलरूपी शतदल पर नव दण्ड नाल हो।
घत्ता - डोरी और स्थिर हाथ से आकर्षित कानों तक लगा हुआ वह (तीर) जैसे जाकर राजाओं से धनुष की कुटिलता कहता है कि वह मेरे साथ भी दुष्टता धारण करता है ॥ ३ ॥
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ज्या (प्रत्यंचा) से विमुक्त जो जीवन का हरण करता है, मानो प्रखर प्रसारित किरणोंवाला सूर्य हो। वह मानो मार्गण (बाण/याचक) है जो बहुलक्ष्यग्राही है। मानो अपना प्रेषित दूत है। वह जाकर वरदामतीर्थ के राजा के सभामण्डप में गिर पड़ा। उसके शरीर में किसी प्रकार लगा भर नहीं।
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