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मागधनइके मंत्रीवाणुलेक शिवाच॥
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और पूर्ण चन्द्रमा के समान मुखवाले उन्होंने स्वच्छ नेत्रों से राजा भरत के उस तीर को देखा ॥१८॥
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उसने (मागधेश वसुनन्द ने) उसमें लिखे हुए हस्ताक्षर देखे-"जो देव, मनुष्य, विद्याधर और देशान्तर के विविध निधियों के स्वामी तथा अपने कालपृष्ठ नामक धनुष पर तीर साधे हुए, ऋषभनाथ के पुत्र राजा भरत को नमस्कार नहीं करते, वे निश्चित ही दो खण्ड होकर मरेंगे।" तब अवधिज्ञान का प्रयोग कर और
अपने मन में प्रसन्न होकर, उन्होंने अपने स्वामी को जाकर वह तीर दिखाया और कहा कि "दुष्टजनों को चूर-चूर करनेवाला चक्रवर्ती राजा धरती पर उत्पन्न हो गया है। हे मगधराज, युद्ध के आग्रह से क्या? शस्त्र छोड़ो, क्यों ग्रह से प्रवंचित होते हो। यदि आज आप उसे स्वीकार नहीं करते, तो हे देव, न तो तुम हो और न हम लोग। तुम अकेले नहीं, हे देव, दूसरे भी सैकड़ों देवों ने उसके घर में दासता स्वीकार कर ली है, जो भाग्य में लिखित है, उसका क्या विषाद करना? प्रणाम करके राजाधिराज से भेंट की जाये।" इन शब्दों से उसने अपना घमण्ड वैसे ही छोड़ दिया जैसे मन्त्र के प्रभाव से साँप स्थित हो गया हो।
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