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वष्णुचवाय विसर्ज पिमहाअवविवायविचाविकार थिरुसंगणविच चवदारशा चा। इयविहरं नुधर सिद्धिवरंगणरत्र वरिससहासणाड घुरिमृताल संपत्र उ ला तो दिई लवंग लवली लया दराला अलिपियाल मालूर सायसाला चपविगण नकहिंकश्यः । पियमाणयुव सरसकटश्यक विद्या सोयं के वणवेत बंधुपाजावेहिम है। तर रेहश्कुल व समुपपत्र एकसप्रस्वपला सलिउन सुरलवपुवरला एपसा हिउ उर शाउससोदि श्वसनगन चिफलु संगामुववणविम सियालु पायपु पण सोहिल थणजयलक्चदणेपियर रमणिण्डिा लुवतिलयालंकि वडवा विसरकर्मकारे
ते पुस्मितालब ध्या गत्यध्या निकिता
और फिर महार्थक अपायविचय (मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रादि से जीव की रक्षा का उपाय हो, इस प्रकार का चिन्तन); और भी वह विपाकविचय का विस्तार करते हैं (कर्मविपाक का चिन्तन करना) और वह लोक संस्थान (लोक की संस्थिति का चिन्तन) की अवधारणा करते हैं।
घत्ता—इस प्रकार सिद्धिरूपी बरांगना में अनुरक्त प्रभु धरती के अग्रभाग पर विहार करते हुए एक हजार वर्ष में पुरिमतालपुर पहुँचे ॥ १३ ॥
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उन्होंने लवंग लवली लतागृहों और भ्रमरों से युक्त प्रियाल, मालूर, साय और सालवृक्षों से युक्त वन देखा, जो प्रिय मानुष की तरह, विडंग पथ्यों (विडंग वृक्षोंरूपी आभरणों से विटों (कामकों) के अंगों के आभरणों)
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से आच्छादित था, जो नित्य अशोक और कांचन वृक्षों से (प्रिय मानुष पक्ष में शोक रहित और कंचन से) युक्त था, जो बन्धु-पुत्रों के जीवन से (वन पक्ष में वृक्ष विशेष) महान् था जो कुल के समान समुन्नति को प्राप्त होकर शोभित था। वह निशाचर नगर की तरह पलास से युक्त (पलाश वृक्षों से युक्त, मांस भोजन से युक्त) था। जो सुर भवन के समान रम्भादि (अप्सराओं, वृक्षों) से प्रसाधित था। अयोध्या के समान सुयसत्थों (शुकसमूहों, छात्रसमूहों से सहित था जो श्रुतिवचन के समान (नित्य फलवाला और सुन्दर) था, संग्राम की तरह वन वियसियउप्पलु (जल में विकसित कमलवाला; व्रणों से ऊपर उछलते हुए मांसवाला) था, नयन के समान जो अंजन (आँजन वृक्ष विशेष ) से शोभित था, जो स्तनयुगल के समान चन्दन (वृक्ष विशेष और चन्दन) से प्रिय था, रमणी के ललाट की तरह तिलक (वृक्ष विशेष और तिलक) से अंकित था,
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