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जिनके मुँह के सम्मुख तरंगें व्याप्त हैं ( आन्दोलित हैं); जो सारथि की चर्मयष्टियों (कोड़ों) से आहत हैं, ऐसे हवा के वेगवाले अश्वों के द्वारा खींचा गया। छह खण्ड धरती के स्वामी राजा भरत ने समुद्र को देखा। धत्ता - वह समुद्र हर्ष से गरजता है, भरत की सेवा करता है। प्रभु किसके लिए अच्छे नहीं लगते। पवन से आहत लहरों रूपी अपनी सुन्दर हाथरूपी डालों से मानो रत्नाकर नृत्य कर रहा है ॥ १३ ॥
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जैसे वह मोतीरूपी अक्षत फेंक रहा है, जल ऐसा मालूम होता है मानो अघांजलि का जल हो। भय के कारण जैसे उसने राजा (भरत) की मर्यादा ग्रहण कर ली हो, जैसे वह पानी के भीतर के पहाड़ दिखा रहा हो। मानो चलते हुए और जल - मानवरूपी अनुचरों की अँगुलियों से स्फुरित जलमदगज, प्रवर प्रवाल और
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माणिक्य उपहार में दे रहा हो; मानो किनारों के लतागृह दिखा रहा हो। मानो बड़वानलरूपी प्रदीप जला रहा हो, मानो घेरकर जम्बूद्वीप की रक्षा कर रहा हो। जिस प्रकार शंखों को बजाता है, उसी प्रकार शंखों को धारण करता है, प्रभु की आज्ञा से किंकर क्या नहीं करता? जिसमें विविध जलचरों के शब्द हो रहे हैं, मानो ऐसे बड़वामुखों से वह कहता है कि हे राजन्! आपको विद्रुम की लालिमा से क्या प्रेम? कि जिसके पिता त्रिलोक पितामह हैं। हे महीपति, आप अपनी तीखी भल्लिका की ओर न देखें, आपकी बात मेरे लिए मर्यादा की रेखा है। मैं जबतक यहीं स्थिर होकर रहता हूँ तबतक महीतल का उल्लंघन नहीं करूँगा। मैं अब आपकी मुद्रा से अंकित समुद्र हूँ। इसलिए मुझपर कुछ भी भयंकर ईर्ष्या नहीं करिए। धत्ता- वह अपना खारापन नहीं छोड़ता।
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