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तूर स्पा हो मिलिनडगणिवाणु परमंडल साह गढ़िययसादणुखणे वनरंडवियादणु॥ शाि वंदासपरिमलं सरसघु सिप्णारुँगी खयत
यणिवलं धरिले कण
रदारिकाहलं सुदडकोलाहलं मुक्कडकारखं सिम सिधास्य वदता हिमखोर गहियसमा इयं पविमाणसरणाइयं वलश्यसरासंग परिहिख ११०
उस तूर्य शब्द के साथ दुर्गों को ध्वस्त करनेवाला, शत्रुमण्डल को सिद्ध करनेवाला, साधनों से युक्त चतुरंग केसर से आरक्त है, प्रलयकाल के सूर्य के समान भयंकर है, जिसमें तुरु तुरिय और काहल वाद्य बज रहे सैन्य भी जा मिला ॥ २ ॥
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जिसने हल-सब्बल ग्रहण किया हैं, जो स्वर्णकुन्तलों से उज्ज्वल है, जो चन्दन से सुरभित है, सरस
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तरथचक्रव केन्द्रागेव गति सन्पत्राग त्या
हैं, सुभटों का कोलाहल हो रहा है, हुंकार शब्द छोड़ा जा रहा है, तलवार की धारें चमक रही हैं, जो तूणीर (तरकस) बाँधे हुए हैं, जो शत्रु में अत्यन्त आसक्त है, जिसने कवच धारण कर रखे हैं, जिसने अपने स्वामी के लिए प्रणाम किया है, जिसने धनुष को मोड़ रखा है, जिसने आभूषण पहन रखे हैं,
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