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ररणुधवलिजमाणु णवालियाएकवलिजमाणु मरगयपहाराणालिजमाए साणंडसवि कमुसादिमाणु असहतिसष्टमसरुमागचसुदावणिमाविबाण्डहवनख रमाणिपणाणाणिसंरकरहसंदाणियाणाणाणावादारदरीकरणाचखिमनुचरिगंगायदे णचक्कीसवमूवश्परियगुचिकहोपावखुचाउँग प्रारुहविविजयगिरिवरकरि कसरि किसोरणगिखिरिदवंशेववहताणारजयला करिणदियचादयणगवमुहलासंचालक गोवालियाग विजयडेहिणियान सुखदिसाईरायाहिराठ।।धन्ना उल्लंधेविसीयरूनवरयणायला ऊंचारण। अणुथलमागयाइन महिहादरवासईगोदण्यासशंपडयोनलईयाणाजदिमाथि
कपूर की धूल से धवल होता हुआ, वन को धूलों से ग्रस्त होता हुआ, मरकत मणियों से नीला होता हुआ, भी गिरिवर पर सिंहकिशोर की तरह, विजयगिरि नामक गजबर पर आरूढ़ होकर, अपने कन्धों पर तूणीरयुगल सानन्द पराक्रमी और स्वाभिमानी वह सैन्य जो महान् भटजन के भार को सहन न करने के कारण मानो बाँधे हुए और हाथ में लिये हुए धनुष की प्रत्यंचा के शब्द से मुखर होता हुआ नगाड़ों के शब्दों के साथ वसुधारूपी वनिता के द्वारा पित्त की तरह उगल दिया गया हो। जो बैलों, खच्चरों और गधों के द्वारा मान्य पूर्व दिशा की ओर चला। है, नरसमूहों और ऊँटों के द्वारा अवलम्बित है, और नाना वाहनों तथा रथों से संकीर्ण है ऐसे गंगातट के पत्ता-भयंकर उपसमुद्र को पार कर वह फिर स्थलमार्ग पर आया। वह राजा पहाड़ों की घाटियों में किनारे-किनारे, चक्रवर्ती के सेनापति के द्वारा प्रेरित चतुरंग सेना रथ के पीछे-पीछे चली। राजाधिराज भरत बसे हुए गोधन घोषवाले गोकुलों में पहुँचा ॥१०॥
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