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रिक्षिय संघहो कंतियानजाया नुमदग्ध हो दंसणमोहणी नुपडिरुद्ध कुमारी श्णेयपडिव
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शिवकुः काश्यरिसियनल पिपु उगता गोसा धता. सा | इस लरहेविभुज मुफत पुरोतिस हिमदारिसगुणा एमहा सइ सरहाणुम सिपमहा रमोहिउसमन्तो ॥ नासंधि। | त्रुद्धारण।तिजगलज्जि विजयाल र रहें दिमुपयाहा हु गाइघाय हरिणीला पदा
समणि सरमज्ञददिन खंडडकपण गंजगहरिणी लुलोउ वदु तारामा त्रियमुवुक
जैसी कान्ताएँ महा आदरणीय संघ की आर्यिकाएँ बनीं। लेकिन दर्शन मोहनीय कर्म से अवरुद्ध एक मरीचि नाम का भरत का पुत्र प्रतिबुद्ध नहीं हो सका। वह उन्हें छोड़कर कन्द का आहार करनेवाला कच्छादि का मुनिपद ग्रहण कर तपस्त्री बन गया। लेकिन मोक्षमार्ग पर चलनेवालों में अनन्तवीर्य सबसे अग्रणी हुआ।
घत्ता श्रावक श्रुतकीर्ति और श्राविका देवी प्रियंवदा भरत के द्वारा पूज्य ग्रहनक्षत्र, जिन भगवान् में रत हैं ।। ३५ ।।
इसप्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाकव्व भरत द्वारा अनुमत ग्यारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ।। ११ ।।
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सन्धि १२
शत्रुबरों के निर्दलन, क्षात्रधर्म के उद्धार, विकलित जनों को सहारा देने, ढाढस और धरती के लिए भरत ने त्रिलोक लक्ष्मी और विजय प्राप्त करानेवाला प्रस्थान किया ॥ १ ॥
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शीघ्र ही शरद ऋतु के आगमन पर धुल गये हैं सूर्य चन्द्र जिसमें ऐसा आकाश अप्रमाण (सीमाहीन) हो उठा, जो ऐसा दिखाई देता है मानो शरद के मेघरूपी दही खण्ड के लिए ब्रह्मा के द्वारा झुका दिया गया हो मानो विश्वरूपी घर में तारारूपी मोतियों के गुच्छों से स्निग्ध नील चन्दोवा बाँध दिया गया हो,
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