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वणाम अहाजादिदीवहिंजन माणुयविंतरजाणतंतं नासर्वकाहिमयमुणिम कल देउपराश्ययाणचन पचनासनरमायउतावशतिहिनिहिंझपाउँगोव शरियादापकिंपिणिरकवण कररकाहिमिकदसकदालोरण रोसलोकसउदासुप णास संगविकासवजिसास मिडोगानअणायगएडॉसनपाणसवारजेमप पई पारीकहदसणसणही कमणिविनियबरहरंगहो सुनकर्किमिणिवियाड बउ वसवेरुथिस्वयणिलता इंटियखलहमिलन परमज्ञाश्मलातूरखुज्ञतठम पछि रिसणाणखलावला होहचिनडिलमारमसुणास्सिव समिकर्णदडन्त्रिपडि हासिमाहरूले बजावाजाववकोयामा करणयासपकविरसालय सजमवायलमा सिदिसिद्धगिर्दछसणितामणिणिड दिदिखमझागजायकटयसंगकवासहसवपरास हलरसह राणाणचरिखतबषारिय धायारविजेचसमारियातहिंसडायपादिणु वधियोतिर्णिविसलगमप विनिसंखअवमायरसपरिवारकालजोमसरुड़ यवाहातवचरसदारुणतरगसहिहसाकार वजावछावणयसझायातणविसम्गेपछि त्रिणियए अझंतस्तक्अपजोयश्चममाणुचठविकणिशायवाणाविधठणामपिंगायल
क५४३
वह इस ढाई द्वीप में मनुष्य जो-जो सोचता है, उसे जानते हैं। ऋजु और वक्र हृदय के द्वारा विचारित अर्थ को जाननेवाला चौथा ज्ञान स्वामी को प्राप्त हो गया। वे पचीस व्रतों की भावना करते हैं, तीन गुप्तियों से अपनी हे चित्तरूपी बालक, तू नारीरूप में रमण मत कर। रमण करके तू शीघ्र ही मोहकूप में पड़ेगा कि जो रक्षा करते हैं, वे ईर्यादान करते हैं और कुछ निक्षेपण करते हैं और कृत-सुकृत की आलोचना करते हैं । रोष, (मोहरूप या नारीरूप) जड़ और चेतन वस्तुओं के भेद के आश्रयरूप, इन्द्रियों का पोषण करनेवाला तथा लोभ, भय और हास का नाश करते हैं, संग का त्याग करते हैं, सूत्रों की व्याख्या करते हैं, मित योग्य और विरसता का घर है। जिनके व्रतों की अग्नि, संयम की वायु से वृद्धि को प्राप्त हुई है, जो परिषहों से रहित हैं, अनुज्ञात भोजन हाथ में ग्रहण करते हैं, और सन्तोष मानते हैं। नारियों की कथा दर्शन और संसर्ग तथा पूर्वरति तामस भाव से दूर हैं, और स्पृहा से शून्य हैं, जिन्होंने दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप को पुष्ट किया है और जो के रंग से निवृत्ति करते हैं, कहीं भी अत्यन्त निर्विकार आहार ग्रहण करते हैं, और गुणों से युक्त ब्रह्मचर्य पाँच प्रकार के आचार हैं, उन्हें प्रेरित किया है। इन आचारों से आदरणीय जिन प्रतिदिन बढ़ते हैं और हृदय धारण करते हैं।
से तीन प्रकार की शल्यों को दूर करते हैं; अनशन, वृत्तिसंख्या, अवमौदर्य, रसपरित्याग, त्रिकालयोग का आदर घत्ता-इन्द्रियरूपी खलों को मिलने पर परमयोगी उन्हें ध्यान में मिलाते हैं, और क्षुब्ध होते हुए मनरूपी इस प्रकार वह बारह प्रकार के कठोर तप का आचरण करते हैं, जो अन्तरंग चित्तशुद्धि का कारण है । वैयावृत्य, बालक को ज्ञान से खिलाते हैं ।। १२ ॥
विनय, सद्ध्यान, कायोत्सर्ग और प्रायश्चित-नियोजन इस प्रकार आभ्यन्तर तप में आत्मा को युक्त करते हैं। चार प्रकार धर्मध्यान करते हैं। शब्दोच्चरण से रहित, आज्ञाविचय (द्वादशांग आगमों का हृदय में चिन्तन)
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