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लज्ञानउत्पत्ति।
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मोक्षमार्ग की सम्भावना कर अप्रमत्त गुणस्थान में लगते हैं (आरोहण करते हैं, वहाँ जैसे ही दस प्रकृतियों से मुक्त होते हैं, वैसे ही वे एक क्षण में आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में आरूढ़ हो गये। वह पहले शुक्लध्यान में लीन हो गये, वितर्कविचार लक्षण और श्रुतज्ञान से सहित उसमें लीन मुनि ऋषभ ने सविभक्त अनिष्ट छत्तीस प्रकृतियाँ जीत लीं। फिर सूक्ष्म साम्पराय (१०वाँ गुणस्थान को प्राप्त कर) और उसके ध्यान से लोभ को समाप्त कर, वह 'उपशान्त कषाय' हो गये। कतकफल जैसे जल में होता है, उसी प्रकार वह हो गये। फिर वह क्षीण कषाय गुणस्थान में स्थित हो गये और दूसरे शुक्लध्यान में अवतीर्ण हुए। सोलह प्रकार की प्रकृतियों के रज का नाश करनेवाले शुक्लध्यान का एकत्व वितर्क भेद ।
घत्ता - त्रेसठ प्रकृतियों के नाश होने पर मनरहित परमात्मा के स्वभाववाले अनिन्द्य और ज्ञानस्वरूप हो गये ।। १५ ।।
१. अनन्तानुबन्धी आदि १० प्रकृतियाँ ।
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तब ऋषभ जिनने तीन लोकों को एक स्कन्ध के रूप में देखा। अन्धकार और प्रकाश से रहित अलोकाकाश को (देखा) । क्रम से अर्थों की प्रतीति करानेवाली इन्द्रियों की बाधा से रहित तथा भावाभाव प्रमाणवाले एक केवलज्ञान से वह सूक्ष्म दूर और पास के द्रव्यों को देख लेते हैं और सबको जान लेते हैं। प्रचुर किरण परम्परा से जिस प्रकार सूर्य शोभित होता है, उसी प्रकार केवलज्ञान से केवली ऋषभ जिन शोभित हैं। उस अवसर पर बीस, तीन और जो दूसरे नौ कहे जाते हैं, गर्व नहीं सहन कर सकनेवाले ऐसे अनिन्द्य देवेन्द्रों के आसन काँप उठे। शाखाओं के हाथोंवाले कल्पवृक्ष नाच उठे। स्वर्ग-स्वर्ग में उत्पन्न हो रहे, दसों दिशापथों को आपूरित करनेवाले घण्टों के टंकार-शब्दों के साथ, शाखाओं के हाथोंवाले कल्पवृक्ष जैसे नृत्य करते हैं
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