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हरिमुहकरिमुहाससामलमुह यादमणमुहलहरकश्महासहलाणणामसविसाणपासना रहतरुहलरसमापणासयलावजयपंकयलोयण पवारुयगिरिमहियसायणाअहाजाशा हिखी कमवशहखनहिदिदिमायक्वनिपालवसजावणिण हेलिसवण्वपवासमा प्पिणा हरिहमूलाहियपायलवष्पातासमुहायामिउप्पणा हाखोरकंकणकडलहाखिवर लसिखलध्यसेहरम गर्हिवाणापडगदिदिविहविर्सागगनश्चंगहि लोयालयपर गतवर्षगहिवरदीववसममालेगर्दि गर्दिकप्परुकहिमदिरजशलाउपिरंतरुमपुअहिं
अहममशिमुन्नमसुहसंग ललियसहावज्ञपिल्लनिटांग पक्कुहुतिपिपल्बजावष्य पाहातिकणवाससमरेपणाधनातासावहदागतासायामधुचमणुब्राजहसन सण अशददक्हिहानितिहण दहपचविहकमाखमापुस अजमेनकामाणियरस मच्छर चीकपारसवबर सासारहिवाणिहणिरंवर ग्रिणिहिवतअजवणरहिवतजियावरच कसरावामुराबवलयवमहावल चारणविजाहाजलकुल हाँतित्रणिहिवतणाणाविहालिदि दिसालासावत्रपद निपुत्रहमणजियश्वाक्षरिअहिउसमुचरिसहजीवहरि तहाअभिमा
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घत्ता-जिसप्रकार मनुष्यों की तीस भोगभूमियाँ निश्चित रूप से बतायी गयी हैं, उसी प्रकार उससे आधी अर्थात् पन्द्रह कर्मभूमियाँ होती हैं॥८॥
अश्वमुख, गजमुख और मत्स्य के समान श्याम मुख, दर्पणमुख, मेघमुख, वानरमुख, सिंहमुख, मेषमुख और वृषमुखवाले, जो सत्रह प्रकार के फलों का आहार ग्रहण करते हैं। सभी अत्यन्त सीधे और कमल के समान
आँखोंवाले, एक पैरवाले पहाड़ी मिट्टी का भोजन करते हैं । अठारह जातियोंवाले ये छियानवे क्षेत्रों में विभक्त हैं। ये एक ही पल्य जीवित रहते हैं और मरकर भवनवासी और व्यन्तर होते हैं। हरित, सफेद, लाल और पीले रंगों के रत्नों से विजड़ित तीस भोगभूमियाँ फैली हुई हैं जिनमें हार, डोर, कंकण और कुण्डलों को धारण करनेवाले दिव्य वस्त्रधारी सिर पर शेखर बाँधे हुए देव रहते हैं। मद्यांग, वीणा-पटहांग (तूांग), विविध भूषणांग, ज्योतिरंग, भाजनांग, भोजनांग, भवनांग, अम्बरद्वीपांग (प्रदीपांग) और कुसुममाल्यांग, कल्पवृक्षों से जिसकी धरती शोभित है। और जहाँ मनुष्य निरन्तर भोग करते रहते हैं। अधम, मध्यम और उत्तम सुखों से युक्त सुन्दर स्वभाववाले और सुन्दर अंगोंवाले होते हैं। एक-दो या तीन पल्य जीवित रहकर और च्युत होकर कल्पवासी देवों में उत्पन्न होते हैं।
पन्द्रह कर्मभूमियों के मनुष्य आर्य और म्लेच्छ होते हैं, जो अपनी इच्छा के अनुसार रस का भोग करते हैं। म्लेच्छ चीन, हूण, पारस, बर्बर, भाषारहित, निर्वस्त्र और विवेकहीन। आर्य लोग ऋद्धिसहित और ऋद्धिरहित होते हैं। इनमें ऋद्धि से परिपूर्ण जिनेश्वर और चक्रवर्ती होते हैं। वासुदेव, बलदेव, महाबल, चारण
और विद्याधर आर्यकुल में होते हैं। ऋद्धियों से रहित मनुष्य नाना प्रकार के होते हैं जो लिपि और देशी भाषा बोलनेवाले और पण्डित होते हैं। जिन (अर्थात् अन्तिम तीर्थंकर महावीर) बहत्तर वर्ष जीवित रहे हैं, हजार से अधिक वर्ष नारायण जीते हैं, उससे अधिकतर
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