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विणवमुपविधरणहेजा च॥२१ अहकविहसरिस माणशंपंचवणारयणावा
यजायणसयदेवमि हावादिरेवरलविया विकारंवत्तासजिलखम समय दोदहसूपकमारि युसुरिदा अहिविमाणद वरचउलाजपामासजि जिणाहिबसिहा सुकमा रसहसारदिसहसजिया कहिंसनसनईसंयुबा
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इसवासातणरलायहोठवरि सिंहाणसखारहियातिवि लिखड्यवादालनपराणवि दहोतरेअदालमाणुसलाय घंटायार थियशसख्दाद सोदामप अहावासासाणयु मादिंदए अहलकपरितमि उवाणिवसाकविससुर्वसा लतएक्काविद्या सदसईहोति हासुईचालीसजि दस्था
दयानधारणायवाचल हहमानजहण्यारह अवरु
घत्ता-आकाश में सात सौ नब्बे योजन की ऊँचाई पर ज्योतिषदेवों का वास है। ये मनुष्यलोक के ऊपर अतल लोक में स्थित हैं। दूसरे विमान (वैमानिक देवों के विमान ) लम्बे घण्टों के आकारवाले तथा असंख्य विचरण करते हैं ।। २१॥
द्वीपों में विस्तारवाले जिनचैत्य हैं। सौधर्म स्वर्ग में बत्तीस लाख, सुन्दर ईशान स्वर्ग में अट्ठाईस लाख, सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में (जिनमें इन्द्र परिभ्रमण करते हैं) क्रमश: बारह लाख और आठ लाख, ब्रह्म
और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में सुखपूर्ण चार लाख, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्ग में पचास हजार जिन-चैत्यघर हैं। शुक्र इनके आधे कवीट (कपिस्थ) के समान आकारवाले संख्याहीन विमान होते हैं जो पाँच प्रकार की । और महाशुक्र में चालीस हजार, शतार और सहस्रार में छह हजार होते हैं। आनत और प्राणत स्वर्गों तथा रंगावलियों से विड़ित और प्रचुरता से निर्मित एक सौ दस योजन के पटल क्षेत्र में, मनुष्यलोक के बाहर आरण-अच्युत में सात सौ कहे जाते हैं। अधोगवेयक में एक सौ ग्यारह,
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१. ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर ४ लाख (क्रमश: १९००० - १०४०००), लौकान्तिक और कापिष्ठ (क्रमश: २५०४२ +२४५८ - ५०००) शुक्र-महाशुक्र (२००२०-१९९८०) शतार और सहस्रार (३०१९ + २९८१) आणतप्राणत आरण और अच्युत ( पहले दो ४४० + अन्तिम दो २६० - ७००) ।
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