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सुदा कसमंतिवेजियस्हणविमुख्यसतित्रादियसहसपविसरसईसरहियाध्यामिहरी सुद्धमध्सहशणहहयाहरतिदवियाईसश्त्र परिणमंतिसहसन्नितणुताधिन संसास्थिर जाव चविचाडसिमजिद दियलेषणापंचपयारपउन्नविदाज काळविहथिणतण विचतिविदतिविराखेपणविजलपिदिविहवकसायजादा अहलेयणाविण्या से जमर्दसणणतिवठविहलेसापरिणामणविज्ञविह सचत्रणविविहसमा सपियाणदार पिसणितं श्रादाबाहारिमज चनसुधिगश्परिट्रयसते केवलिसमुहदविणदाश
अरुड्जाइसिहपरमपाय तेणलंतित्राहारुविनालिसेसजीवजापहियाहारिय मग्या ठाणश्चाददलमणिरपटिंगपठाणाशमिएलमिलाइहिपहिललगायन सासणुवाम उमासचितायन अविखसम्माडिचठलन पंचमविख्याविरळपसकहपृणुपमत्रराजम हरुसामप्यमवगुणसदरूअहमहाश्श्शनवयम्वनयपिहिलदगतम्यगचनादा हमठेगुडमगरजाणिकरण्यारहमुवसमुसणिवारहमपरिवीणकसामउतेरहमनसा आइजिजाय उझिनतिविहसरीरलरतरु उवरिलम्जाश्पराकसाइनाणास्यचनारिच
कोई एक पक्ष में श्वास लेते हैं । असुर एक हजार वर्ष में भोजन करते हैं । सरस-सुरभित अत्यन्त मोठा सूक्ष्म शरीर से आहार ग्रहण करनेवाले हैं, वे चारों गतियों में प्रतिष्ठित हैं। समुद्घात' करनेवाले और विग्रहगति शुद्ध स्निग्ध इट जो द्रव्य चित्त खाये जाते हैं वे शीघ्र ही शरीररूप में परिणत हो जाते हैं।
में जानेवाले अर्हन्त, अयोगी सिद्ध, परमात्मा होते हैं, वे आहार ग्रहण नहीं करते । शेष जीवों को आहारक घत्ता-संसारी जीव जिस प्रकार चार गतियों से भिन्न होने के कारण चार प्रकार के होते हैं, उसी प्रकार समझना चाहिए। मार्गणा और गुणस्थानों से भी जीव के चौदह भेद होते हैं। अब इन गणस्थानों को इन्द्रिय भेद से पाँच प्रकार के होते हैं ॥२८॥
सुनिए- इनमें मिथ्यादृष्टि पहला गाया जाता है। सासन-सासादन दूसरा, मिश्र तीसरा, अविरत (असंयत)
सम्यकदृष्टि चौथा, देश-संयत पाँचवाँ । प्रमत्त संयम धारण करनेवाला छठा। गुणों से सुन्दर अप्रमत्त सातवाँ, जीव चपल और स्थिर स्वभाववाले योग से छह प्रकार का, तीन प्रकार के योगों और वेदों (पुल्लिंग अपूर्व अपूर्वकरण आठवाँ, गवरहित अनिवृत्तिकरण नौवाँ, सूक्ष्म-साम्पराय को दसवाँ समझना चाहिए, आदि) से तीन प्रकार का और कषायों से चार प्रकार का होता है। ज्ञान से उसके आठ भेद हैं। संयम और उपशान्त कषाय ग्यारहवाँ कहा जाता है। परिक्षीणकषाय बारहवाँ कहा जाता है, तेरहवाँ सयोगकेवली कहा दर्शन से तीन और चार भेद हैं, लेश्याओं के परिणाम से भी छह प्रकार हैं। भव्यत्व और सम्यक्त्व के विचार जाता है, तीन प्रकार के शरीरभार से रहित ( औदारिक, तैजस और कार्मण) सबसे ऊपर अयोगकेवली परम से दो-दो भेद हैं (भव्य-अभव्य, सम्यक्दृष्टि असम्यग्दृष्टि), संज्ञा से संज्ञी और असंज्ञी दो भेद हैं। जो-जो सिद्ध होता है।
१. दण्ड-कपाट-प्रतर-पूरण के द्वारा जब केवली त्रैलोक्य का मरण करते हैं उस समय वह अनाहारक होते हैं।
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