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सरकरचना किरा छत्रा देहामुऋति तेषु डिहममतिर॥ १३॥ नवमश वरिल खेल सहाउनेककिं महितपुडु डाणिलु जें करेणलें सुविसुकंपि
इंतिसिपवणे समदणंति अमपि सुमिच उवयारिख जोजोदासइसोसो लाम अंसुकेवलिसभुविणवण बदलु उण्डसीनडडसन तड जिमरेज वश्तरण वि
पाणगन्नई। ॐ खंडकरचरण
पाई
रुखहखगासमा सफल ईव कढोरई व
पंडति
पिह लिय
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घत्ता - अधोमुख होकर वे शीघ्र असिपत्र पर गिर पड़ते हैं। स्वयं को मारते हैं, दूसरे को मारते हैं और युद्ध में दूसरे के द्वारा मारे जाते हैं ।। १३ ।।
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उनका कोई मध्यस्थ या उपकार करनेवाला मित्र नहीं होता। जो जो दिखाई देता है वह दुश्मन होता है। वहाँ के क्षेत्रस्वभाव को क्या कहा जाय? जो श्रुतकेवली के समान है उसके द्वारा भी वर्णन नहीं किया
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जा सकता। सुई के समान तृण हैं और चलने में कठिन धरती उष्ण, शीत और प्रचण्ड पवन। जिसे हाथ में लेने मात्र से जीव मर जाता है, वैतरणी नदी का ऐसा वह जल विष है, उसे क्या पिया जा सकता है! जहाँ वृक्षों के पत्ते हाथ, पैर, मुख और शरीर को खण्डित कर देनेवाले तलवार के समान हैं। जिनके फल वज्र की मूठ की तरह कठोर हैं। शरीर को चूर-चूर कर देनेवाले वे ऊपर गिरते हैं।
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