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यरसी रिपू उत्तर मत्तमयाश्चक्किणि पुहंचउरासी लरकेयहं परमाउसुङ्गिणहरिवलण्य है पुत्र के डिसामधुविथिरकर जीवकम्मलमिजायउप परकुमाया ईसवर कॉडि तिकश्वश्चासर परणिस हदविसँग काम ते सामरतिसमुहिम गलेसविगलति तपख पिवर विक क्यादिवद जिपिणु उत्त्रमेणपुला हपिस] हा पंचसचाई सवाईपईदा। सतह चन्दनतिहरुवि शिक्किणपत्रडदळावे तनविदांतिकारा श्रदरसवार मणामणुय्युपद्धांति सत्तममहिषास्यविसम जिहातिदतेंउ वाउ काय कमला चतम होति कवि इसदणिद्दा वस जोइस वलवणंत हितावस चारयपरिवायसर्वसाम र आजीववि सहसाराला सुर जतितिरिस्कबितंजेजे वयधर एारसम्मता राहण] तप्यर सावय वाहले सोलहमनं सग्गुलहरमाणुमुदविरमंउं रिसिवर्हिविषणु तदो उपरि को विलुंजाइश्रहमिंदहं सिरि सत्रु मित्रनणमणिसमत्रिं संनमेणसद्धेवारित्रं जिण लिंगेल हें।। तिक्तरधर अलवियन वरिमगविज्ञामर आसबहासिद्विपियां थह दाइमुइ सम्पन्न पसउर्द णारउमरेविणणार उजायर सुरुविषासुरमुणिणाडनिवेयश श्रमरुपणरय होणारउसग ।
वर्ष बलभद्र का जीना कहा गया है। उससे सात सौ वर्ष अधिक चक्रवर्ती निश्चित रूप से जीते हैं। जिन, नारायण और बलभद्र की परम आयु चौरासी लाख वर्ष पूर्व होती है। कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ स्थिरकर मनुष्य एक पूर्वकोटि सामान्य जीवन जीता है। कोई मनुष्य पक्ष, मास, छह माह और एक वर्ष तथा कुछ दिन जीते हैं। शरीर के पसीने आदि से उत्पन्न होनेवाले जो सम्मूर्च्छन जीव होते हैं, वे जल्दी मर जाते हैं। कुछ शरीर लेकर गर्भ में गल जाते हैं, दूसरे कुछ दिन जीवित रहकर मर जाते हैं। दूसरे नृसिंह (नरश्रेष्ठ) सवा पाँच सौ धनुष ऊँचे होते हैं, निकृष्ट रूप से सात हाथ, चार हाथ, तीन हाथ और दो हाथ भी होते हैं। इससे भी छोटे कद के मनुष्य होते हैं, अत्यन्त लघु, बौने और कुबड़े ।
घत्ता - जिसप्रकार सातवें नरक के विषम जीव सीधे मनुष्ययोनि में उत्पन्न नहीं होते। उसी प्रकार वायुकायिक और अग्निकायिक जीव भी सीधे मनुष्ययोनि में जन्म नहीं लेते ॥ ९ ॥
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कोई तापस असह्य निष्ठा के कारण ज्योतिष और व्यन्तर भवनों में उत्पन्न होते हैं। आहिंडक, परिव्राजक, ब्रह्म स्वर्ग में देव होते हैं और आजीवक सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। व्रत धारण करनेवाले तिर्यंच भी वहीं जाते हैं। सम्यक्त्व की आराधना करने में तत्पर मनुष्य श्रावक व्रतों के फल से सोलहवाँ स्वर्ग प्राप्त करता है और दुःख से विश्राम पाता है, लेकिन उसके ऊपर मुनिव्रतों के बिना कोई भी अहमिन्द्र की श्री का भोग नहीं कर सकता। अपने चित्त में शत्रु और मित्र के प्रति समता भाव धारण करनेवाले संयम और शुद्ध चारित्र्य और जिनलिंग से, व्रतों का भार धारण करनेवाले अभव्य उपरिम ग्रैवेयक में देव होते हैं। सम्यक्त्व से प्रशस्त निर्ग्रन्थों की उत्पत्ति सर्वार्थ सिद्धि तक होती है। नारकीय मरकर नरक में नहीं जाता और देव मरकर देव नहीं बनता, यह विवेचन मुनिनाथ करते हैं। जीव नरक से सीधे स्वर्ग नहीं जाता और स्वर्ग से नरक नहीं
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