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अणिहूयकमु चूक हिंसा वजिन परम धम्मु जोप से तो दोश्मारक पडिक लहसनव
पुपुदो हिंमिम शत्रुला राहन फूड बळ हे सहा मिंदिज, दूरचिपितो हिरो हि चंडाव वापाणे वाइयदि तदासिवियाद किकरति ससाणादम लेस वरति ससि सरासदिसंघान जम लवणो व यू। रिजिनुकं मितम स्रुइसे विजोगविपिनश्वारि तो ताण वडतिद्यमा रि जोर सुतासुविभ्रूणा सुसज्ञ सखरदो पति का जिगरूलमंत्र गरलंतारिनु पहि विसहावं डरिय हारि अणु व लारा सामि जनितहि समनजामि जर्दिवडत हिंससूरु समग्यूसा जति हिमणिमत्तमिमा पई दिखायेवसर मिजामिद वयणा मतितिज्ञामि नहिसमय सरेणार्ज लारिकप परिचिंतियस विद्यारस चठदेवणिका यहिपरियरिन, आसूणसंठिन दिपक दो वरम्भिनव हिसिरम्भिदहरिणलं सोहइ सिंधुरा रिवाढम्मि विदयिकमा बंधणे असवदहमाया सहलवेण चठवीस अधूरा जग अरहेन हो पर संत जेते पहागणदर कहति गइसाई चयारिजा मावि र सिकसुखेन नाम विकासविपाणिहपाणणास गनणयले गमणुपरमेसरासु ए उन्त्रिपवाणो वस सरलकिपरक विरकेनलग्गु चाहिययविवजिय हो
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तुम काम को नष्ट करनेवाले वीतराग हो, तुम हिंसा से रहित परमधर्म हो। जो तुम्हारी सेवा करता है उसे सुख मिलता है, जो तुमसे प्रतिकूल है उसे दुःख होता है; परन्तु तुम दोनों में मध्यस्थभाव धारण करते हो, यह ऐसा स्पष्ट रूप से वस्तु का स्वभाव है। अधिक पित्तवालों के द्वारा सूर्य की निन्दा की जाती है, वायु से पीड़ितों के द्वारा चन्द्रमा की निन्दा की जाती है। परन्तु वे दोनों (सूर्य-चन्द्र) इन लोगों का क्या करते हैं, वे तो अपने स्वभाव से आकाशतल में विचरण करते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा सूर्य और औषधि का संघात संसार का उपकारी है, उसी प्रकार हे जिन तुम भी उपकारी हो। जो सरोवर को दोष लगाकर पानी नहीं पीता उसपर प्यास के मारे 'तीव्रमारि' आ पड़ती है। जो पानी पी लेता है उसकी प्यास का शीघ्र नाश हो जाता है। सरोवर का न इससे प्रयोजन और न उससे प्रयोजन जिस प्रकार गरुड़ का मन्त्र विष का अन्त करनेवाला होता है, उसी प्रकार तुम भी स्वभाव से पाप का हरण करनेवाले हो। हे अनवरत भूत स्वामी, जहाँ तुम वहाँ मैं भी साथ जाता हूँ (जाऊँगा)। जहाँ तुम हो वहाँ देवों सहित समग्र स्वर्ग और मणिमय भूमिमार्ग हैं, वहीं मैं भी हूँ।"
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घत्ता- इन्द्र द्वारा निर्मित उस समवशरण में जिन भगवान् दूसरों की कल्याण कामना से संचरण करते हैं और वे सुर नर तथा तिर्यंचों का शुभ करने का धर्म कहते हैं ॥ १ ॥
श्रेष्ठ सिंहासन की पीठ पर विराजमान कर्मबन्धन का नाश करनेवाले जिन ऐसे शोभित हैं जैसे उत्तम उदयाचल के शिखर के ऊपर चन्द्रमा हो। जन्म के साथ उनके दस अतिशय हुए थे, ज्ञान के उत्पन्न होने से चौबीस और अतिशय उत्पन्न हो गये। जग में जो केवल अरहन्तों के होते हैं, उन्हें (अतिशयों को) गणधर इस प्रकार कहते हैं जहाँ तक चार सौ कोश होते हैं, वहाँ तक सुभिक्ष और सुक्षेत्र रहता है। किसी भी प्राणी का प्राणनाश नहीं होता। परमेश्वर का आकाश में गमन होता है, न उनमें भुक्ति की प्रवृत्ति होती है, और न उनपर उपसर्ग होता है; उनकी सरल आँखों के पलक नहीं झपते। उनका शरीर छाया से रहित है, उनके पास समस्त विद्याओं का ऐश्वर्य होता है,
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