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सकिरीटमउडमंडिय कम जयतिसल्लवेली वणर्हिदरण अवकंदणथडमण को कलंकका
राजव्यमाणइरि सिदरमुसमूरण मायापावलाव डाव यरिसंधारण, जयसन्सस्य कुरूं व जलजगबंधन महियतिगाथ जमरिसाइतिकं कर वहिं जोश्यलरदेदि पुष्कथं |राप तिस हिमारियट हारा
जया ध्यारविद्यावण तिहारयणा गवियारण जयमयमजगल कुलकं व पढमधुरिसपरमपाय संकर जय चंदिन यम (जडि नहिचत्री सर्विस |तरणाम कहि
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महांका मनोभसं
देवों के किरीट और मुकुटों से अलंकृत चरण अपकी जय हो त्रिशल्यरूपी लतावन का उच्छेदन करनेवाले आपकी जय हो, कन्दर्प के दर्परूपी भट का मर्दन करनेवाले आपकी जय हो, क्रोधरूपी कलंक का कीचड़ दूर करनेवाले आपकी जय हो, मानरूपी पर्वत के शिखर चूर-चूर करनेवाले आपकी जय हो, माया के पापभाव को नष्ट करनेवाले आपकी जय हो। लोभरूपी अन्धकार को उड़ानेवाले आपकी जय हो। तृष्णारूपी राक्षसी को मारनेवाले आपकी जय हो। सात भयरूपी कुरंगों का विदारण करनेवाले आपकी जय हो। मदरूपी मयगल के लिए सिंह के समान आपकी जय हो। विश्वबन्धु और तीन गव को नष्ट करनेवाले आपकी जय हो। प्रथम पुरुष, परमात्मा, शंकर, ऋषभनाथ और तीर्थंकर आपकी जय हो।
घत्ता भरत को आलोकित करनेवाले तथा सूर्य-चन्द्र के समान शोभित पचासों इन्द्रों ने इसप्रकार जिनेश्वर की वन्दना की ।। २९ ।।
जिगरमदम्मैदीवन-च वळं पियानिद्य निक कलाविण कवक परमेसरुणिने पुरंदर
दर्विबंधरित्री पल को दो विदायु यदी एवं विशेसरेपुप्फसंतो परिससिय उबलवण रिण । परमण्यमडपसीय सुसमसिद्धमंदाऽपढम् जिण को उपड़वा यस्तो सुपर्णिदय वहसिमकरं तद दिडकणसिचयपण या गडदोहदोहरि
रश्म
णाम
इसप्रकार श्रेष्ठ पुरुषों के गुणों और अलंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का ऋषभ केवलज्ञान उत्पत्ति नाम का नौवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ।। ९ ।।
सन्धि १०
१
जन्म, भय और मरण के ऋण को समाप्त करनेवाले जिन परमेश्वर की इन्द्र ने स्तुति की " हे समवशरण से घिरे हुए शान्त परमात्मा जिन मुझपर प्रसन्न हों। हे प्रभु, न तो तुम्हें वन्दना से सन्तोष होता है, और न तुम निन्दा से मत्सर धारण करते हो तब भी जो नत नहीं होते, या नत होते हैं, तुम उनके दुःखसमूह और
सुखसमूह का विस्तार करते हो।
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