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वडियमटणहो णवपसडिदंडईसपसंसंशं पियपाट्यसपडियाश्वदंसरंजलकरदलंदोलणाचव लश्यपढाणारुणाईवविमलखारतरंगाश्वपरिघुलिटा कितिदिअंगाश्वसंचलियशंपड रास्चमध्सीविसिहई दद्यादेविकालावदिहजसंदरुलविहंगउतिङयपकाईम
महराजपा चंगठाततसयलवितहिजिसमणिकावमाजसारिधिमागिता
स्वरस्तुविधा पिण्यपदपिनश्यचंदक समवसरणुपयोगणथक्ल पंचस!
सधपुनमसमापे सेणियकहिमाहिाणवरणाविससहयोग वाणविहाणे चढदियुविरश्यकपमाणाधना जानडामिाण । देधणुपंचमर्दिपनि नरुधगिरिवलाईसावाराणवा निठहलाअठणेपरदहावेणसंपनुहा गाढयूहरेझ्याण पिसामउन्नाळा घ्यधणरहिमजाबाह दिपविम्सडारमा 57 बदिजयाजण्इकाहरुद्दयनरापणजयतबरामारसहभापप जयकलिकलिलसाजिलसासपरविजयवासरईसरददळविजयमपतिमिरलारहरणाकमातिय एं
नव स्वर्णमय दण्डोंबाले, यक्षों के करतलों के आन्दोलन से चपल सफेद सुविशिष्ट और प्रशंसित चमर के), उससे (ऋषभ जिनकी ऊँचाई से) बारह गुना अधिक ऊँचे हैं ॥२८॥ स्वर्णबन्धन में पड़े हुए हंसों, क्षीरसागर की आन्दोलित लहरों, कीर्ति के चंचल अंगों, और दयारूपी लता
२९ के फूल के समान दिखाई दिये। लक्ष्मी का जो-जो सुन्दर अंग है और विश्व में जो-जो भला है, वह सब और इनकी मोटाई (ऊँचाई से) आठ गुनी जाननी चाहिए। खम्भों और वेदिका के विषय में भी यह वहीं समर्पित कर दिया। इन्द्र की रचना का वर्णन कौन कर सकता है? अपनी प्रभा से सूर्य और चन्द्रमा को समझना चाहिए। इस प्रकार कुबेर ने जब रचना की, तभी इन्द्र ने आदरणीय जिन को नमस्कार किया-"हे निस्तेज करनेवाला-समवसरण पाँच हजार धनुष ऊँचाई के मान से आकाश में स्थित था। हे श्रेणिक, यह जिन, कृष्ण, रुद्र, चतुरानन! आपकी जय हो, तपश्रीरूपी रामा से रतिसुख माननेवाले आपको जय हो। कलि मैंने जिनवर के ज्ञान से कहा।।
के पापोंरूपी जलों को सोखने के लिए सूर्य, आपको जय हो, सूर्य के समान शरीर कान्तिवाले आपकी जय घत्ता-जो ऊँचाई जिनेन्द्र के द्वारा पाँच सौ धनुष कही गयी है बनवृक्ष गिरि (पर्वत), खम्भे (पताकाओं हो, मन के अन्धकारभार का हरण करनेवाले आपकी जय हो,
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