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अवि य दुकरणो को वि वरिठ्ठो बारहजोयणदीहो दिठ्ठो। होइ तिकोसो तिकरणवंतो चउकरणिल्लो जोयणमेत्तो। पत्ता-लवणण्णवि कालण्णवि विउले होति सयंभूरमणि झस। सेसेसु पत्थि जिणभासियउ सेणिय ण चुक्कइ अवस ।। १३ ॥
१४ दुवई- जाणसु जोयणाइं अट्ठारह लवणसमुहमच्छया।
णव वरसरीमुहेसु छत्तीस जि कालोए दिसच्छया॥१॥ अवसाणमहण्णवि जे वहति ते जोयण पंचसयाई होति। गयणंगणचरहं थलंभचरहं समुच्छिमगब्भसरीरधरहं। कइवयचावई काह मि गणंति तणमाण एम मणिवर भणंति। कासु वि संमुच्छिमजलयरासु पज्जत्तिल्लहु जोयणसहासु । जलगब्भजम्मि मवियाइं ताई पंच जि जोयणइंसयाहयाइं। एयहं तीहिं मि संमुच्छिमाहं परिवज्जियपज्जत्तीकमाहं। अक्खिउ जिणेण दीसइ विअस्थि परमेणोगाहण परविहत्थि। थलगब्भयदेहि तिगाउयाइं परमेण माणभावहु गयाइं। सुहमहु बायरहुं मि ध्रुवु पवण्णु अंगुलअसंखभायउ जहण्णु।
दो इन्द्रिय (शंख) बारह योजन लम्बा देखा गया है। तीन इन्द्रिय (चिऊँटी) तीन कोस का है। चार इन्द्रिय हैं, तथा कालोद समुद्र में नदी-प्रवेश-मुख में अठारह योजन और मध्य समुद्र में छत्तीस योजन लम्बे होते (भौंरा) एक योजन प्रमाणवाला है।
हैं। अवसान (अन्तिम स्वयम्भूरमण) समुद्र में जो मत्स्य बहते हैं वे पाँच सौ योजन के होते हैं। आकाश घत्ता-लवणसमुद्र, कालसमुद्र और विशाल स्वयम्भूरमण समुद्र में मत्स्य होते हैं, शेष समुद्रों में नहीं के आँगन में विचरनेवालों, थल और आकाश में चलनेवालों, संमूर्छन और गर्भज जन्म धारण करनेवालों होते। हे श्रेणिक, जिनवर के द्वारा कहा गया कभी गलत नहीं हो सकता॥१३॥
का शरीर मान कई धनुषों का गिना जाता है, इस प्रकार मुनिवर कहते हैं। किन्हीं पर्याप्तक जलचरों का शरीरमान एक हजार योजन का मापा जाता है। इस प्रकार पर्याति क्रम से शून्य इन संमूर्छन जीवों की अवगाहना जिनेन्द्र
भगवान् के द्वारा एक वालिस्त की कही गई है । गर्भधारी थलचरों की अवगाहना तीन गव्यूति (छ; कोश) लवणसमुद्र के मत्स्य अठारह योजन के होते हैं । गंगा आदि नदियों के प्रवेश मुख में नौ योजन के होते परम मान से होती है। सूक्ष्म बादर जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग होती हैं।
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