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पत्ता-जगि सुहमणिगोयसमभवहं अवि यसमत्तहुं ण वि रहिउ।
णिक्किठ्ठ कुसुमयंतें पहुणा उत्तिमु जलयराहुं कहिउ ॥१४॥ इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फयंतविरइए महाभव्वभरहाणमण्णिए महाकव्वे तिरिक्खोगाहणो णाम दसमो परिच्छेओ सम्मत्तो॥१०॥
॥ संधि॥१०॥
संधि ११ पुणु इंदियभेउ वम्महपसरणिवारण। भासियउ असेसु लोयह रिसहभडारएण॥ध्रुवकं ।।
जाणइसण्णिउ जो पज्जत्तर पुठ्ठउ सुणइ सद्दु गयसोत्तिउ। णिल्लोयणतिउ पुठ्ठपविट्ठरू णियच्छइ अप्परिमट्ठउ । फासु गंधु रसु णवहि जि भावइ बारहजोयणेहिं सुइ पावड्। । सत्तेतालसहस्सइं दिट्टिई। अवरु वि दोणि सयई तेसट्टइं। चक्खिंदियहु विसउ वक्खाणित जेहउ केवलणाणे जाणिउ। गंधगहणु अइंवत्तसमाणउं सवणु वि जवणालीसंठाणउं। दिठ्ठिइ पडिम णिएज्ज मसूरी अक्खिय जीह खुरुप्पायारी। सहरियतसदेहेसु पयास फासु अणेयरूवविण्णायउ। समचउरंसु ठाणु सुरसत्थहु हुंडु वि णारयगणहु अहत्थहु।
घत्ता-विश्व में सूक्ष्म निगोद में जन्म लेनेवाले अपर्याप्त जीवों को भी उन्होंने गुप्त नहीं रखा। कामदेव का नाश करनेवाले उन्होंने जलचरों की उत्कृष्ट और जघन्य अवगाहना का कथन किया है।
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का तिर्यंच अवगाहन नामक दसवाँ परिच्छेद
समाप्त हुआ॥१०॥
जो संज्ञी पर्याप्तक जीव है वह स्पष्ट श्रोत्रगत शब्द को सुनता है। नेत्रों को छोड़कर तीन इन्द्रियाँ (स्पर्श, रसना और प्राण) स्पृष्ट (छए हुए) और प्रविष्ट को दूर से जान लेती हैं। आँख अस्पष्ट रूप को देखती है। स्पर्श, गन्ध और रस को वे नौ योजन दूर से जान लेती हैं। कान बारह योजन दूर से जान लेते हैं । दृष्टि (आँख) का इष्ट-विषय सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन है। यह चक्षु इन्द्रिय विषय का व्याख्यान किया, जैसा कि केवलज्ञान से जाना गया। गन्धग्रहण (नाक का अन्तरंग) अतिमुक्तक पुष्प के समान है। और कान (अन्तरंग) जौ की नली के समान है। आँख में मसूर की आकृति जानना चाहिए; और जीभ को अर्धचन्द्रमा के समान कहा जाता है। हरी वनस्पति और त्रसों के शरीरों में प्रकाशित स्पर्श को अनेक रूपों से जाना जाता है। देवसमूह का शरीर समचतुरस्र संस्थान होता है।
सन्धि ११ फिर काम के प्रसार का निवारण करनेवाले आदरणीय ऋषभ जिन ने अशेष लोक के इन्द्रिय भेद का कथन किया।
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