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लहेहोश्परमु । तदो कमलहरु णिक्करसम्युद्धं परमहंस जो सचवुझ हंसाय केवविल झाश्रमयवेपनजजपदावर विद्यायासुयवडायसोपा व सीदेोवजेण वयसेविजे | साहचिंधु वह केणरणलाविड जेणरणयसुधाइटमा तायु जेवसथाइ चिंगर पसु वश्या जिल डास हुनर किंअपच जो पदिय डम्पी लश पीलु तासुध्य वटुअणुस लश्मे! हचकुझें चक्चूिसि चक्कविधुत होहो वाखि ॥ घना पुष्णुमायारुविचिचाचनडवारसुपस माहिंथिजणास कुमार मराय दंडविक । ५२५हला पुणरविध्यदाहडी पवरणहसाला हिगवला वसोदिया ताणवरसाला को उनसिरंस तिला तिमणामन जण्डितितिय साहिवर राम | पुणुदी हर दविदकण्डुमा दरिसिय, होय सारणिरुणिरुवम पुष्पवेश्य कलहोइल के पि यकताश्वमोगरा यु विडवार पवित्र दरिमा निय वमंगल वाई णिडुजेका लिम सुरसंघाटा हं संसारिपड हरिणामहं। पुष्णुपर्ने लिलधेविष सायहं । यतिहार तारासुकाय प्रणुथूहणतोरणमालन | पृणुफलिमउ सालुयुविसालउ म्नन्तरगिरिधरुयाखा कप्णदेवपरिरकि यदार सुद्धायासफ लिहसंपत्ति तो चालगो विसोलहजिन्ति ॥ छत्रातहि
जो राजारूपी कमल से पराङ्मुख है उसके सम्मुख निश्चय ही कमलध्वज हैं। जो सच्चे परमहंस समझे जाते हैं ध्वज में उनका हंस से कैसे विरोध हो सकता है। जो अमृत ब्रह्मपद दिखाता है, वह गरुड़ध्वज पाता है, सिंह के ही समान जिसने वन की सेवा की है सिंहध्वज उन्हें क्यों अच्छा नहीं लगता? जिन्होंने अपने मार्ग में पशु का आघात नहीं किया उनके लिए ध्वज के अग्रभाग में बैल स्थित है। वही आदरणीय पशुपति कहे. जाते हैं, क्या और कोई दूसरा दुष्ट अपने को क्यों शिव समझता है? जो दुर्दम पाँच इन्द्रियों को पीड़ित करता है, गज उनके ध्वजपट का अनुशीलन करता है। जिसने मोहचक्र को चाँपकर चूर-चूर कर दिया, बिना किसी प्रतिवाद के चक्र उसका चिह्न होगा।
घत्ता - फिर चार द्वारोंवाला प्रशस्त और विचित्र परकोटा था। जहाँ पन्नों के दण्ड हाथ में लिये हुए नागकुमार देव खड़े हुए थे ।। २५ ।।
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फिर जिसमें धूप के दो हैं, ऐसी विशाल नाट्यशाला है। नवरसाला (नौ रसोंवाली) वह, अभिनव भावों से अत्यन्त शोभित हैं। जहाँ इन्द्र की उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा नामक नर्तकियाँ नृत्य करती हैं। फिर लम्बे दस कल्पवृक्ष हैं, श्रेष्ठ भोगों को प्रदान करनेवाले अत्यन्त अनुपम फिर स्वर्ण की वेदिका है जो प्रिय कान्ता के समान सुख देनेवाली हैं। फिर बहुमंगल द्रव्यों को बतानेवाले द्वार हैं। जिनमें नित्य देवसमूह क्रीड़ा करता है और भंभा, भेरि और नगाड़ों का निनाद हो रहा है ऐसे हारों और तारों के समान स्वच्छ प्रासादों की पंक्ति और प्रतोली लाँघकर मणियों के तोरणमालाओं से युक्त स्तूप हैं। फिर स्फटिकमय विशाल साल (परकोटा), मानुषोत्तर पर्वत के समान विशाल, जिसका द्वार कल्पवासी देवों के द्वारा रक्षित है। वहाँ से लेकर शुद्धाकाश के समान स्फटिक मणियों से बनी हुई सोलह दीवालें हैं।
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