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पवलपडिस्कवलदलण्डमहलो कंठ कुंदलपसम्मि पहिले दस जयलेहिंणजहि मड पिंगला तव ताल मुदोचारु । श्ररोदी हर करंगुलि सरो दिनकरपुरकरो दा हमरमेडणे दाह उहास दादरवालही दाणी सास सवणपडियापाडयमकलिदने लो। चलप पड़िच लाख लखलियपटास खल चाववं सोम हा राव इहियरो घुलियघंटा कुणा तसिखदिस कुंजरो कमिकार करण मित्रसुरमेलन लकण सुवंजपणिरंजणगुणालउ धित्त्रसिंदूर धूली र यालो दिन का कत्रज्ञावला साहिज लक आयणमहा वडिमावहिन दंसियारहिंवा रेस्पि रियान त्रिकला पयश्समुदाइ जसकंदणात संपाता। मणिशरणकारंडा
मरहसंकुलसुंदरु भार्यगमिसण, चमन वा यठमं दरु १० हेला । चत्री सवर क्यण सोदिल्ल उरसंत वयणविवरविणिग्गाहहदतो ना दैतेदंते सरु सरसरेपा मिणि पामिणिजानूसा विय गोमणि पामिणियदेपोमिणिय हे पोमई ती सदा सिछदया। रविरम्भ एलिपेणलिपतेत्रिय इंडियन गावइजिपवरलबिपनाई पत्रपत्रे केकी अर इदावत्तावरसककर तयेळे विसका मन सिंधुल सरु सामरुचडि पुरंदरु इंदमहिंदसमाणजिसाहिय तायविंस किरमंतिपुरा
जिसमें प्रबल प्रतिपक्ष की सेना के दलन का दुर्दम बल है, जो कण्ठ और कपाल प्रदेश में गोल आकृतिवाला है; जो दशनों और दोनों नेत्रों से मधुपिंगल है, जो लाल तालु और मुखवाला है, सुन्दर और तुच्छ उदरवाला है, तथा दीर्घ कर और अंगुलियोंवाला सरोवर के समान जिसकी श्रेष्ठ सूँड है। जिसकी दीर्घ शिश्न और दीर्घ चिबुक है। जिसकी दीर्घ पूँछ और दीर्घ निःश्वास हैं। जिसके कानों के पल्लबों से आहत पवन से मधुकरकुल गिर पड़ता है, जिसके चलने और मुड़ने से पैरों की श्रृंखलाएँ झनझना उठती हैं, धनुषवंशीय, जो दुन्दुभियों के समान महान् स्वरवाला है। जिसपर घण्टों की ध्वनियाँ हो रही हैं, जिससे दिग्गज भयभीत हैं, जिसने शीत्कार के जलकणों से देवसमूह को आर्द्र कर दिया है, जो लक्षणों, व्यंजनों और निरंजन गुणों का घर है, जो फेंकी गयी धूलि से लाल है, जो नक्षत्रमाला की (घण्टावलियों) गीतावलि से शोभित है, जो एक लाख योजन की महावृद्धि से विशाल है, जो महावतों और वीरों के द्वारा परिवर्धित है, ऐसा वह कल्याणवाला महागज दौड़ा, और वहाँ पहुँचा जहाँ इन्द्र विद्यमान था ।
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धत्ता-मद का निर्झर बहाता हुआ, चमरोंरूपी हंसकुलों से सुन्दर वह ऐसा प्रतीत होता है मानो गज के बहाने दूसरा मन्दराचल आया हो ।। १७ ।।
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बत्तीस वरमुखों से शोभित गरजता हुआ प्रत्येक मुख-विबर से निकले आठ-आठ दाँतोंवाला प्रत्येक दाँत पर सरोबर सरोवर में कमलिनी, कमलिनी वह, जो महालक्ष्मी को सन्तोष देनेवाली थी, कमलिनीकमलिनी में कमल थे। तीस और दो, बत्तीस कमल थे जो भ्रमरों से सुन्दर थे। कमलिनी कमलिनी में उतने ही पत्ते थे, जैसे जिनवर लक्ष्मी के नेत्र हों। पत्ते पत्ते पर एक-एक अप्सरा है। हाव-भाव और रस में दक्ष वह नृत्य करती है। उस सुन्दर कान्तवाले गज को देखकर, अप्सराओं और देवों के साथ इन्द्र उस पर आरूढ़ हो गया। जो इन्द्र के सामानिक देव कहे जाते हैं, ऐसे तैंतीस प्रकार के मन्त्री, पुरोहित,
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