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पुणरवि अंतरि णवदुमवेल्लिउ कुसुमालउ णं वम्महल्लिउ। पत्तिहिं रत्तउ णं वरवेसउ फलणमियउ णं सुहिपरिहासउ। कंटइयउ णं पिययममिलियउ पच्चंति व मारुयसंचलियउ। णं वरकइवायउ कोमलियउ लाडालावडं पासिउ ललियउ। वित्थरियउ अहिणवरससार णं कामुयमईउ सवियारउ। का वि वेल्लि तहिं वेढइ कंचणु सयल वि पारि समीहइ कंचणु। लग्गी का वि ललंति असोयह जिह तृय तिह किर रमइ अन्सोयइ। लग्गी का वि गपि पुण्णायहु होइ णियंबिणि फुडु पुण्णायहु। क वि मायंदडं संगु ण खंच णिवरोहिणिहि लीलणं संचह। पत्ता-किसलयदलफलगोंछु चलचंचुइ पिल्लर।।
अमरु कीरवेसेण तेत्थु को वि रइ पूरइ॥ २२॥
हेला-चिंतियवेसधारिणो जणियकामभावा।
वेल्लीवणलयाहरे जहिं मंति देवा ॥१॥
मानो काम की भल्लिकाओं के समान हैं। जो पत्रों (पत्तों और पत्ररचना) से मुक्त मानो वरवेश्या हैं। जो सुधीजनों के परिहास के समान फलों से नमित हैं । जो प्रियतम से मिले हुए के समान कंटकित (रोमांचित) हैं, हवा से संचालित होने के कारण जो जैसे नृत्य कर रही हैं । जो मानो श्रेष्ठ कवि की वाणी के समान कोमल हैं, जो लाटालंकार के आलापों से भी अधिक सुन्दर हैं। जो अभिनव रससार की तरह विस्तृत हैं, जो मानो कामुकों की मतियों की तरह विकारों से युक्त हैं। वहाँ पर कोई लता चम्पक वृक्ष को घेर लेती है, (ठीक भी है) सभी नारियाँ स्वर्ण की आकांक्षा रखती हैं, चाहती हुई कोई लता अशोक वृक्ष से लग जाती है, और जिस प्रकार स्त्री अशोक (शोकरहित) मनुष्य से रमण करती है, उसी प्रकार रमण करती है। कोई लता जाकर
पुन्नाग वृक्ष से लग गयी, और स्फुट रूप से पुन्नाग ( श्रेष्ठ पुरुष) की गृहिणी बन गयी कोई मायंद ( आम्रवृक्ष) के साथ नहीं लगती मानो वह चन्द्रमा और रोहिणी की लीला को धारण करती है।
पत्ता-कोई देवता शुक के रूप में पत्तों, दलों और फल के गुच्छों को अपनी चंचल चोंच से नोचता है, और इस प्रकार अपनी कामना को पूरी करता है ॥२२॥
२३ अपनी इच्छा के अनुसार वेश धारण करनेवाले, तथा जिन्हें कामभाव उत्पन्न हो रहा है, ऐसे देवता जहाँ लतावनों के लताघरों में रमण करते हैं।
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