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हिंधणसमवसरणकिउतावाहिउंदाणण्तणिनिजेठ मंजडणर्किसीसश्तहनाधला वारदजायणडहरिणीलेंतखबर परिवहुलठविसुद्धूलीसालमपठार हेलामोतिय दसणहासुमसुरणाहवावलाला यायसविणामान सहलिसालोठिा सञपिछताया कहिमिविर कश्यजपुंजवसाहकळश्साहसमारोग्वाकळपडसइंडणिहा उघाअवतजगलपहाणंठी ताग्दातिसालहसावाणउचटगोचरमिसतिसालठ पस रिखणाणामपियरजालठमाणलिलताइपरिसंगयासध्यसचमरसंघटाएंगसाचउड़ामरा दिसदिवयारिसमामय दंशयमितपजिटाज्यमयाअख्हणापडिमारिवारियाफणिदा। गावमाणवजयकारिय प्रणवाविण्ठसकालससलिलउखगमाणियउपाशवगमठिलर नारयणकरमजरिदिनचठपश्यापरियम्मावाचनमकुवलयधारिखणणिवसनिउासमि यहगडणंहानिठादिसधाश्यपाणियकल्लालमायुपुखायठरमियमसमालकाला पहसियसररहपहिवाठमायतिर्णिविहिपरिहलणाशयति देवागमवलक्विहिरीला जमिहिउराईसहिमतहसो सुखद्धकरणियाहिंसुरहक्तिहलकसानामुणरक्यिता
तबतक कुबेर ने समवसरण की रचना कर दी। इन्द्र की आज्ञा से उसने जिस प्रकार उसे बनाया, मुझ जड़ की लीला का उपहास करनेवाला जिसका परकोटा सोह रहा था। कहीं पर शुकपंखों की छविवाला शोभित कवि द्वारा उसका किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है?
होता है, और कहीं अंजन समूह के समान शोभित होता है। कहीं सन्ध्याराग की तरह लोहित (आरक्त) घत्ता-बारह योजन विशाल जिसका तलभाग इन्द्रनील मणियों से निबद्ध था, गोल विशुद्ध वेष्टित है, कहीं पर कुन्दपुष्यों के समूह के समान सफेद है। उसके भीतर एक के ऊपर एक तीन पीठ हैं और उनकी परकोटेवाला ॥२०॥
सोलह सोलह सीढ़ियाँ हैं, चार गोपुरों से भूषित त्रिशालाएँ हैं जो नाना प्रकार के मणियों के किरणजाल से २१
प्रसरणशील हैं, उनके ऊपर मानस्तम्भ हैं जो मानो ध्वजों, चामरों और घण्टों से सहित गज हैं। वे चारों दिशाओं अपने मोतियों के दाँतों से इन्द्रधनुष की लीला का उपहास करनेवाला रत्नधूल से रचित धूलिसाल शोभित में चार खड़े हुए हैं जो देखने मात्र से जय के अहंकार को चूर-चूर करनेवाले हैं । अरहन्तनाथ की प्रतिमाओं था। कहीं पर तोतों के पंखों को छवि से शोभित होता है, कहीं पर अंजन के समूह के समान शोभित है, से घिरे हुए तथा नागों, दानवों और मनुष्यों के द्वारा जयजयकार किये जाते हुए। फिर वहाँ कमलों और कहीं पर सन्ध्याराग के समान शोभित है। कहीं पर कुन्दपुष्यों के समूह के समान सफेद है। उसके भीतर वापिकाओं से सहित वापिकाएँ हैं, जो मानो पक्षियों के द्वारा मान्य खग स्त्रियाँ हों। जो तीरों के रत्नकिरणों एक के ऊपर एक तीन पीठ हैं, उनमें सोलह सोपान हैं। चार गोपुरों से भूषित तीन परकोटे हैं, जिनमें तरह- की मंजरियों से दीप्त, चारों ओर की सीढ़ियों की परिक्रमा से विचित्र हैं । जो मानो नृपशक्ति की तरह कुवलय तरह के मणियों के जाल फैले हुए हैं। उसके ऊपर मानस्तम्भ है। ध्वजों, चामरों और घण्टों से युक्त जो (नीलकमल, भूमिमण्डल) को धारण करनेवाली, तथा रथ की युक्ति की तरह घूमते हुए रथांगों (चक्रवाकों मानो गज हों। चारों दिशाओं में चार समुन्नत मानस्तम्भ स्थित हैं, जो दर्शनमात्र से जय के मद का अपहरण और चक्रों) वाली थीं। जो दिशाओं में दौड़ते हुए जलों की लहरों से रमण करती हुई मत्स्यमालाओं से युक्त करनेवाले हैं। जो अरहन्तनाथ की प्रतिमाओं से घिरे हुए हैं और जिनका नाग, दानव और मनुष्य जयजयकार थीं। कर रहे हैं। फिर जल और कमलों सहित सुन्दर वापियाँ हैं। पक्षियों के द्वारा मान्य, जो ऐसी लगती हैं मानो घत्ता-हँसते हुए कमलों तथा हवा के लिए बाहर आते हुए मत्स्यों के बहाने जो अपनी चंचल आँखों खग महिला हों। जो तीरों में विड़ित रत्नों की किरणरूपी मंजरियों से आलोकित और चतुष्पथों के रचना से मानो देवागमन देख रही हैं ॥२१॥ कर्म से विचित्र हैं । जो मानो कुवलयधारक (कमल, पृथ्वीरूपी मण्डल) नृपशक्ति है, जो मानो भ्रमितरथ
२२ (चक्रवाक, रथ का पहिया) रथ की युक्ति है। दिशाओं को छूनेवाली, पानी की लहरोंवाली, और क्रीड़ा जहाँ रति के द्वारा (काम), हंसिनियों के द्वारा मत्त हंस और सुरवधुओं की हथिनियों के द्वारा ऐरावत करती मछलियों से युक्त खाई है। रत्नों की धूलि से विनिर्मित तथा अपने मुक्तारूपी दाँतों से इन्द्र के धनुष की सैंड का स्पर्श चाहा जा रहा है। भीतर फूलों की घर नवद्रुम लताएँ
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