________________
सडकंडियण हल हि मोहनिपिम्म हिराविव सासरोज होणाल सिरी विवरजणसमुल वरम्मूपतिव दाणमहारुदलमापचिव स महोधणणि जिय एक्कहिउडुमालाइव पुजि यं पूरियर्स वृक्ष व वासों चरकस दारुपि परमे तो दिवस हो । समासठ अरकटय तश्येणाउ संजातून घरुजाम विलरहिकाहिपनि पदमुदापतिकं करुवंदिउ परंमुपविको उसमा गई पत्रविसे सुदाणविदिजाणां पईमुपविका चिंतलं सर पर मध्य उ को मंदिर श्रेयांसराजा के पश्मुविदिसियस रियजय सरु कवकरु कुलाइदियरु जय सेनं सदेव प्रगतहिं संथुन सुरण वरसामंत महिम लेधामर हासु, यय इतोसिस कई जिण सेयं सकलाई तवा एाइवर चक्कई ।।११। मा रहो विविमदयावडा नु+ एय दिविदिमिचदहियं गया रिमा सपिणुगत रहे सुरु एच हिंमहिविहरणिसा रुतिर्हिणाणि हिंडें परिणाम अचलचिमणप
धरियाध पारं एनकाउणि करिसर थुर जाइ वि नागपुरियाई स्त्रियांसका तिकी ॥ पंचाय याणिव चव
नभरूपी लक्ष्मी के कण्ठ से गिरी हुई कण्ठी हो, मोह से आबद्ध नवप्रेम की लज्जा के समान, स्वर्गरूपी कमल की मालश्री के समान, रत्नों से समुज्ज्वल उत्तम गजपंक्ति के समान, दानरूपी महावृक्ष की फल सम्पत्ति के समान, श्रेयांस के लिए कुबेर के द्वारा दी गयी (पिरोयी गयी) जो नक्षत्रमाला के समान एक जगह पुंजीभूत हो गयी हो। एक साल का उपवास पूरा करनेवाले परमेश्वर ने उसे अक्षयदान कहा। उस दिन से अक्षय तृतीया नाम सार्थक हो गया। घर जाकर भरत ने श्रेयांस का अभिनन्दन किया, और उस प्रथमदान तीर्थंकर की वन्दना की और कहा "तुम्हें छोड़कर और कौन गुरु का सम्मान कर सकता है तथा पात्र विशेष की दानविधि जान सकता है! तुम्हें छोड़कर कौन सोच सकता है: किसके घर में परमात्मा ठहर सकते हैं दिशाओं में अपने यश का प्रसार करनेवाले तुम्हें छोड़कर और दूसरा कौन कुरुकुलरूपी आकाश का सूर्य हो सकता है?
Jain Education International
L
00000 00000
हे श्रेयांसदेव! जय" - यह कहते हुए सुरवर और नरवर सामन्तों ने उनकी संस्तुति की। धत्ता-धरती तल पर धर्मरूपी रथ के ऋषभ जिन और श्रेयांस के द्वारा बनाये गये व्रत और दानरूपी ये सुन्दर चक्र, देवेन्द्र को भी सन्तोष देनेवाले हैं ॥। ११ ॥
For Private & Personal Use Only
१२
"लगी हुई हैं दयारूपी पताकाएँ जिसमें ऐसा कामदेवरूपी राजा का नाश करनेवाला धर्मरूपी महारथ इन दोनों के द्वारा (व्रत और दान) से चलता है।" यह कहकर भरतेश्वर चला गया। यहाँ जिनेश्वर धरती पर बिहार करने लगे। तीन ज्ञानों, शुद्ध परिणाम और मन:पर्यय ज्ञान से अचल चित्त
www.jainelibrary.org