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तरसाद रिस्कृणवमयदि ममा सहपरक मिश्रदि डविङमिडियम
संजम गठणाचा सो हरि णियमऋठ अधूरुविनरगुणा खाणे खाली ससन थाइल नियमखरु वाडवलि गंदणु अवरवसदसेणाइन्। अनायाससुपरि स समउपतापणाही सां समगारन दिवदिसहितरते फरशा
जयवजयुपरिचिविसामि मियनिनुमन रायरंणेहाला | इंपल अजयमधुमडामरु पराश्नु गयागिजगेहहो गया | गंदण पिजविरहाणजे अ | यवन जोवष्पदंक्किउपाहा घना रणवड हहो कर जग सरु थपि वरि इयमहापुराणेतिसहिम हो रसगुणाल कोरोमदा कश्यप्फयुतविरमा सह तरहाणुमसिए महा कुले । जिया निरक व्ण कल्लागंणाम सत्रमा परिन।संघाळा ॥मातर्धसंधरिकहलिनोममेतदा प्रछतः कथ ६५
वसन्त माह के कृष्णपक्ष की नौंवीं के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में उन्होंने दो प्रकार का संयम अपने मन में स्वीकार कर लिया। इन्द्र, अग्नि और यम अपने घर चले गये। नियमों में स्थित स्वामी की प्रदक्षिणा कर और भी दूसरे लोग अपना माथा झुकाते हुए (चले गये)। पत्नियाँ जिनकी ओर स्नेहभाव से देख रही हैं ऐसे चालीस सौ राजा तत्काल दीक्षित हो गये। अजयमल्ल वह मधुपुर पहुँचे। बाहुबलि भी अपने नगर में चला आया। नेत्रों को आनन्द देनेवाले वृषभसेन आदि दूसरे पुत्र भी तथा प्रिय की विरहारिन से अत्यन्त सन्तप्त अशेष नारीजन भी लौट आया। यदि नागराज उसका वर्णन कर सका तो वह उन नाभिराज के साथ ही ।
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घत्ता – विश्व के लिए भयजनक युद्ध के नगाड़ों का स्वर भरत क्षेत्र की दिशाओं में गुंजाता हुआ पुष्पदन्त भरतेश्वर जाकर शत्रुओं के लिए अग्राह्य अयोध्या नगरी में स्थित हो गया ।। २६ ।।
इस प्रकार त्रेसठ शलाकापुरुषों के गुणों और अलंकारों से युक्त महापुराण के महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में जिनदीक्षा ग्रहण कल्याण नाम का सातवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ७ ॥
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