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डणुमयरकनावसहमंडणुपसिनणिस्तुववहारहामंडणवायविचकुलमंडपसाँलुसुत्रस्म बुद्धिातवचरणहामंडणुमणविसाह कलवमरसतारलनि असिण्यहोमंडणुमतसन्नि माणहामंडपठादाणक्यपासवणदामटणवरणारिमाणु कमंडणुणिचाहिमणिबंधुगम महामंडणुससिकलमबंधु पिम पम्मदोमंडणपणमकान लिहामंडपुखलविद्या किंका रमंडणुपडककरण णखमंटणु
पाश्चसरण सिरिमंडर पडिययणणिरुवपडियमंडणुणिम |
मच्छरस्तुपरिझिामरण उपरोक्यास धरणिपालिमणिवियाह ।
उहरिमदेविणामिविण मिलाया कामावश्यहातमिनकामय
दवाकिहासकिरपण परिणवाटपाउसवायाचिता किंकिी।
काश्मदिाश्सहाय मुजिसामिडातिकित्तय पकन्नणयफ
सतगशामिमाश्याच्या महाउराणेविसहमहामुरिसगुणालका महाकावायतविरथमहासवसरहामसिएम १०
वेश्या का मण्डन निश्चय ही वेश्यावृत्ति है: व्यवहारी का मण्डन त्यागवत्ति है: कल का मण्डन शील है, शास्त्र नमि और विनमि दोनों भाइयों का उद्धार कर दिया, उसकी शोभा को कौन पा सकता है। अथवा दूसरे से का मण्डन बुद्धि है, तपश्चरण का मण्डन चित्त की विशुद्धि है, कुलवधू का मण्डन अपने पति की भक्ति क्या हो सकता है? दैव ही सब रूप में परिणत हो सकता है। है, राजा का मण्डन मन्त्र शक्ति है, मान का मण्डन अदैन्य वचन है, भवन का मण्डन श्रेष्ठ नारीरल है, कवि पत्ता-दूसरा क्या देता है और क्या लेता है। पुण्य ही सबका स्वामी है। उसी पुण्य से भरत की कीर्ति का मण्डन अपने प्रबन्ध का निर्वाह है। आकाश का मण्डन सूर्य और चन्द्र हैं, प्रियप्रेम का मण्डन प्रकोप प्रमुख और आकाशगामी है ॥१५॥ है, प्रारम्भ का मण्डन खलवियोग है। किंकर का मण्डन अपने स्वामी का काम करना है। राजा का मण्डन इसप्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा प्रजा का भरण करना है। निश्चय से लक्ष्मी का मण्डन पण्डितजन हैं, और पण्डितजन का मण्डन मत्सरता और महामन्त्री भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का नमि-विनमि राज्यप्राप्ति नाम का आठवाँ परिच्छेद से रहित होना है। पुरुष का मण्डन परोपकार है। जिसका पालन धरणेन्द्र ने निर्विकार भाव से किया है, ऐसे
समाप्त हुआ॥८॥
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