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सोमराजा आदिनाथगृहा तस्मादा करणं ॥
मविलडं वहिरंधल मूल का इंटर वाहिलई सय हियकारणमतें झू स्वसदा कारु परमारापाविमुएपिए पियदाणु सारुपि देश्यानो घरकुमा केदन घरयास चिराउने नियति शणिजपोहु जेपास श्रनुजायाहूं कहिंजायस
माणुसुणिहम्मु तदिंउप्पेरकरार कियचिणुकंप गुणवंत उपविश लाइ यक हिर्काते अत्रणा समग दाजयज्ञिपत्रववहारमा रमायोजदे मंगणि वस निळेश जलसरियदलपिहिम सिंगार हक्रेण परिदि काजल इव तावेण सहम्मज्ञासुपसलावेण । सवदिषसं लरियमुणिदा ॥ यमेण वरमदेहेवि किए जो पियपणा लोयणे हे धरणी सतो से पारयण देण इसिक दिन सुइस संसि पात्रेण चंदत्वारितवें गोत्रेण रुजंगला वर्णिवणिवललाप मठम करणाथ। सेयं सराय
बहिरों, अन्धों, गूंगों, अस्पष्ट बोलनेवालों, काने, बेकार, उद्यमहीनों और व्याधिग्रस्त दीनों के लिए गणनीय उसने सर्वप्राणियों के हित के कारणभूत कारुण्य से भोजन और वस्त्र दिये। परहिंसक और पापिष्टों को छोड़कर जो गृहस्थ अपने धन के अनुसार सोच-विचारकर दान नहीं करता, वह घर बनानेवाली उस गौरेया के समान है जो अपने बच्चे और अपना पेट पालती है और यह नहीं जानती कि मरकर कहाँ जायेगी।
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धत्ता- जो मनुष्य धर्महीन है वहाँ उपेक्षा करनी चाहिए जो दुस्थित हैं, उनमें अनुकम्पा करनी चाहिए और गुणवानों को प्रणाम करना चाहिए ॥ ८ ॥
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इसप्रकार उस युवराज ने दानकर्ता, दातव्य पात्र और व्यवहार का सारमार्ग समग्ररूप में कहकर पवित्र धोये हुए दिव्य वस्त्र पहनकर जल से भरा, पत्तों से ढका शृंगार हाथ में लेकर दी गयी जलधारा से ताप को दूर कर, जिसे सद्धर्म और श्रद्धा के वश से भाव उत्पन्न हो रहे हैं, पूर्वजन्म के स्मरण से जिसे पूर्वजन्म का मुनिदानकर्म याद आ गया है, जो श्रेष्ठ चरम शरीरी है, जिसने जन्म का उच्छेद कर दिया है, प्रिय कहने और देखने से जिसे स्नेह उत्पन्न हो गया है, जो धरती को सन्तोष देनेवाला गुणरूपी रत्नों का घर है, जिसके कान, ऋषि के द्वारा कथित शास्त्रों की सूची से छेदे गये हैं, जो चन्द्रार्क चारित्र्य से शोभित शरीर हैं, ऐसे कुरुजांगल राजा के अनुज मधुर और कोमल न्यायवाले श्रेयांस राजा ने
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