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हावयण मिहनयमतिपहझ्याउ आणचकरनिराडश्याठ अदिधम्माश्वसंदिराकानणरतरसामा रामगामा जहिदखामंडवयलेसुरति वहिथिमदकारसुपिटातिधूवल्लवजतिपालिझमाणु खर लडखडरसयवहमाण करकचरसवनपपिनता तितायवाझसिरकपुजाम् जाहपिचकलव कापश्चरति मुख्यत्रणहलिमिहिकरतिध्वा सिरिसयणहिणवलवयणहिवियसैतादि। मेराश्य जहियामिाणाकलमुस्मुणिसाएदियणगायज्ञारावला कंकप्पहारदारकडि सुत्रहसियाणिगंधश्वमलहिवासिया लर्निसनिणराहवयाणि साखंजलदतितकणमा णि बाकसमियणदाणवणसंकटारकालागिरिंदसिहरनइ परिहातिपहियरिश्रवियाश पक्षणअधयमालालवियान बड़दारगामेरालयाश् सावणरयारघ्यालयाश्मुहसालातार
सोदियाइदाहिणसढिपासाहिया साहासमूहमादिनासुराझपयध्यापासनिपुरधरा पहिला सकिंगरणगावाठ वककवणुविधायुडरा हरिकउसकेमविखणु सम्मारिकरणाहार वण सिखिडसिरिहरुलायायलातु अपकसिठसणलाल बहाग्गलुवज्ञविमाउँअवरुम हिसामपुरंजयपुरविपवरू सालहमीपुरीसयडमुहिदाश्चमुहिवळमुदिजाणंतिजाश्रयविख्ख
प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ उन्हें सिद्ध हो गयीं, और आकर उनकी आज्ञाओं का पालन करने लगीं। जहाँ सीमा उद्यानों विद्याओं से सम्पादित लक्ष्मी का उपभोग करते हैं और जो सुख प्राप्त करते हैं वह किसे मिला? उसकी दक्षिण से निरन्तर बसे हुए ग्राम धर्मों की तरह कामनाओं को पूरा करनेवाले हैं । जहाँ पथिक दाखों के मण्डपों के नीचे श्रेणी में कुसुमित नन्दन वनों से व्याप्त, क्रीड़ा-गिरीन्द्रों के शिखरों से उन्नत तीन-तीन खाइयों से घिरे हुए, सोते हैं और द्राक्षारस पीते हैं । जहाँ बैलों के द्वारा संवाहित यन्त्रों के द्वारा पेरा गया पौंड़ों और ईखों का रस बह हवा से उड़ती हुई ध्वजमालाओं से शोभित बहुद्वार और गोपुरवाली अट्टालिकाओं से युक्त, स्वर्ण और रलों रहा है। जिसे कवि के काव्य रस की तरह जन तबतक पीते हैं कि जबतक तृप्ति से उनका सिर नहीं हिल जाता। से निर्मित प्रासादोंवाले, मुख्य शालाओं और तोरणों से अंचित, यश में प्रसिद्ध, अपने सौन्दर्य-समूह से सुरवरों जहाँ तोते पके हुए धान्यों के कणों को चुगते हैं और कृषक-स्त्रियों का दौत्य कार्य करते हैं।
को मोहित करनेवाले ये पचास पुरवर हैं। पहला किन्नर, दूसरा नरग्रीव, फिर बहुकेतु, फिर पुण्डरीक नगर, घत्ता-जहाँ कमलिनी बहुत-से कमलों से दिन में इस प्रकार शोभित है मानो सुन्दर मधुर ध्वनि में सूर्य फिर सुन्दर हरिकेतु, श्वेतकेतु, फिर सारिकेतु और नीहारवर्ण । श्रीबहु, श्रीधर, लोहाग्रलोल तथा एक और का गुणगान कर रही हो॥१२॥
स्वर्ग की तरह आचरण करनेवाला अरिंजय । वज्रार्गल, वज्रविमोद और धरती में श्रेष्ठ विशाल जयपुर । सोलहवीं
भूमि शकटमुखी है, और भी चतुर्मुखी बहुमुखी नगरियाँ हैं, जिन्हें योगी जानते हैं। कंगन-हार-दोर और कटिसूत्र से भूषित, नित्य गन्ध-धूप और पुष्यसमूह से सुवासित वहाँ के लोग जो
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